तीरथ सिंह खरबंदा
स्कूल के दिनों में जब पतंगों का मौसम आता और हम बच्चे कक्षा में बैठे होते, तब मन खयालों की डोर में बंधकर उड़ता हुआ धीरे से घर की छत पर जा पहुंचता। दिन की आखिरी कक्षा सभी बच्चों को हद से ज्यादा लंबी लगने लगती। सबका ध्यान पूरे समय इसी बात में लगा होता कि कब आखिरी घंटी बजेगी और कब हमें घर जाकर पतंग उड़ाने को मिलेगी।
उन दिनों घर पहुंचकर बच्चों को न तो स्कूल से मिला गृहकार्य करने की चिंता होती और न ही ट्यूशन पढ़ने जाने की जहमत उठानी होती थी। सारा ध्यान शिक्षक के पढ़ाने से बेखबर, पतंग को उड़ाने की तैयारी में लगा होता। चंचल मन रह-रह कर डोर-सा सपनों की चरखी में लिपट-लिपट जाता।
बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते चले गए, तब कब और कैसे पतंगें डोर सहित उनके हाथ से छूटकर कहीं बहुत दूर जा निकलीं, इसका कुछ पता ही न चला। जब वे जिंदगी की पतंग ऊंची उड़ाने के चक्कर में संबंधों में बंध गए, तब चरखी और डोर का इंतजाम करने और नित नई समस्याओं से पेच लड़ाने में उलझ गए। जीवन की चरखी में लिपटी डोर एक बार जो उलझनी शुरू हुई तो फिर वह उलझती ही चली गई।
बच्चे तेज और प्रतिकूल हवाओं में भी जिंदगी की पतंग ऊंची उड़ाने की हरसंभव कोशिश में लगे रहे। जब हवा अनुकूल होती तब पतंग एकदम सधी हुई रहती, मगर जब हवा विपरीत होती तब वह बिगड़ जाती। हवा की गति मंद होती तो लाख कोशिश करने के बावजूद पतंग उड़ने का नाम नहीं लेती। वह रह-रह कर फिर धरातल पर आ गिरती।
जिंदगी में जब पतंग थोड़ा ऊंचा उड़ने लगी तो फिर उसे बच्चे तरक्की की डोर से बांधने के साथ उसे और अधिक ऊंची उड़ाने की जुगत में लग गए। जिंदगी की स्पर्धा में उड़ती हुई पतंग को काटने की कोशिश करने वाले भी कम नहीं होते। जब कभी अकस्मात उड़ती हुई पतंग की डोर टूट जाती तो बच्चे बहुत दुखी होते, पर दूसरे यह सब देखकर मन ही मन बहुत खुश होते, हालांकि प्रकट रूप में पतंग के डोर सहित दिल टूट जाने पर सहानुभूति प्रकट करने वाले भी आगे रहते।
जिनको किसी की ऊंची उड़ती हुई पतंग को देखना न सुहाता, वे अपनी छत से छिपकर डोर के टुकड़े के दोनों सिरों पर पत्थर बांधकर उड़ती हुई पतंग की डोर पर निशाना साधकर फेंकते और फिर निशाना सही बैठ जाने पर उड़ती पतंग को बैठाकर बहुत खुश होते। यों वैसे बच्चे कभी भी सामने आने का साहस नहीं कर पाते।
बचपन के दिनों में जिनकी काबिलियत ‘मोर (कमजोर) डोर’ की होती, वे अपनी फितरत से अन्य बच्चों की ‘सांकल (मजबूत) डोर’ से उड़ती हुई पतंग को काटने की कोशिश में लगे रहते। जिन्हें पतंग उड़ाने की कला का ककहरा तक न आता था, वे चाहते थे कि जब वे पतंग उड़ाएं तब कोई बच्चा उनकी चरखी पकड़े खड़ा रहे। पतंग उड़ाने का असली आनंद वे उठाएं और चरखी पकड़े बच्चा उसे निहारता भर रहे। साथ ही उनकी बिखरी हुई डोर को भी संभालता और चरखी में लपेटता रहे।
इस तरह के बचपन के खुले वक्त में बच्चे अपने हाथों पतंग बनाने, मांझा तैयार करने और उसे उड़ाने की कला खूब सीख लेते थे, जो उन्हें जीवन में अच्छा-खासा आत्मनिर्भर बनना सिखा देता था। बचपन में पतंग के पेंच लड़ाने की सीखी हुई कला भी जीवन भर हमारे बहुत काम आती। जीवन में अक्सर पतंग गोता खाकर बैठती हुई-सी लगती है, लेकिन उस कला के सहारे हासिल हिम्मत से वे फिर ऊपर उठ जाते।
जलवायु के बढ़ते तापमान के इस युग में हवा का विपरीत बहना और उड़ती पतंग का अचानक बिगड़ने लगना एक आम बात है। विपरीत हवा में पतंग उड़ाने की बचपन में सीखी हुई कला भी बहुत काम आती है। कई बच्चे पिता के सख्त अनुशासन के कारण दूसरे की कटी हुई पतंग झांकड़े में अटका कर लूटने की कला सीखने से अवश्य वंचित रह गए होंगे। अब वे सोचते होंगे कि जो हुआ कितना अच्छा हुआ।
फटी हुई पतंग को ‘लेई’ या गोंद से चिपका कर उसे फिर उड़ाने योग्य बनाने का अभ्यास भी बच्चों को जीवन में चीजों की कद्र करना सिखा जाता है। बचपन में अगर डोर उलझ जाती तो किसी भी बच्चे के चेहरे पर दुख झलकने लगता। मगर फिर पतंग उड़ाते-उड़ाते उलझी हुई डोर को सुलझाने का धैर्य पता नहीं कब और कैसे उसी पतंग की डोर सिखा देता, भान भी नहीं होता। अब भी पतंग का मौसम आते ही यह देखा जा सकता है कि बचपन के दिनों की याद करके बड़ों के मन की पतंग खयालों की डोर से बंध कर पता नहीं कहां-कहां उड़-उड़ जाती है।