प्रभात कुमार
लेकिन आजकल यही प्रोत्साहन मिलना मुश्किल हो गया है। घर चलाने के लिए पति-पत्नी काम करते हैं, सुबह से शाम और रात तक व्यस्त रहते हैं। अभिभावकों की ऐसी सांसारिक विवशता में मोबाइल फोन और टीवी बच्चों का साथी होता जा रहा है। खासतौर पर युवा मां चाहकर भी बच्चों को समय नहीं दे पाती। महिलाओं और खासतौर पर व्यावसायिक योग्यता वाली युवतियों का आत्मनिर्भर होने का ख्वाब तभी सच हो पाता है, जब वे कोई काम या नौकरी करती हैं। ऐसे में बच्चों को दिन में देखभाल करने वाले पालना केंद्रों में भेजना पड़ता है।
यों यह स्थिति समूचे और खासतौर पर मध्यवर्गीय समाजों का आम हिस्सा बनता जा रहा है। लेकिन यहां उदाहरण के तौर पर एक संदर्भ को देख सकते हैं, जिसमें एक तरह से प्रयोगधर्मिता के जरिए इस बदलती प्रवृत्ति को समझने की कोशिश की गई है। लगभग दो साल की एक छोटी बच्ची को एक पुरानी डायरी दी गई और उसके नन्हे हाथों में एक कलम थमा दिया गया। सोचा गया कि कुछ न कुछ तो सीखेगी! सामयिक बंदिशों के कारण उसकी मां को घर से ही काम करने की सुविधा मिली हुई है।
अन्यथा शायद वह बच्ची भी पालना घर या ‘क्रेच’ के हवाले होती। हमारे परिवेश में प्रतिस्पर्धा की इतनी भगदड़ है कि बच्चा जितनी जल्दी विद्यार्थी हो जाए उतना बेहतर, उसके लिए भी और अभिभावकों के लिए भी। चाह कर भी हम इस दौड़ से बाहर नहीं हो सकते, इसलिए बच्ची ने डायरी में कलम से रोज कुछ मनपसंद करना शुरू कर दिया। उसकी नानी कुछ दिन के लिए उसके पास रही तो उसने उसे हिंदी और अंग्रेजी वर्ण लिखना, बोलना सिखाना शुरू कर दिया।
जिंदगी का पहला स्कूल घर होता है। उसकी नैसर्गिक दिलचस्पी ने कुछ ही दिनों में अपने नन्हें हाथों से अच्छे से कलम पकड़ना सीख लिया। कई बार अपनी अंगुली से दबाकर वह बाल पेन को बंद कर देती, फिर दबाकर खोल न पाती तो इशारा करती। कुछ बुदबुदाती, फिर खुलने पर रुचि से देखती कि खुल गया है। वह मन से कुछ बनाती रही, कभी पन्ने पर, कभी डायरी के बाहर।
दर्जनों पृष्ठों पर कलम प्रयोग हो जाने के बाद एक दिन गलती का एहसास हुआ। उसे बाल पेन नहीं, पेंसिल दी जानी चाहिए थी। अगली सुबह उसके हाथों में पेंसिल थमाई गई तो उसे स्वीकार करने में हिचक हुई। उसने बेमन से दो-चार पंक्तियां खींची और पेंसिल छोड़ दी। वह मेज पर कलम खोजती रही, जो वहां नहीं था। पेंसिल के पिछले हिस्से को देखती रही, जो बाल पेन की तरह दब नहीं रहा था।
बच्ची की नानी ने उसे प्रेरित करने की कोशिश की तो उसने संप्रेषित किया कि उसे पेंसिल प्रयोग में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। अब मेहनत कर उसे पेंसिल की आदत डालनी थी। इस बीच कई बार इत्मीनान से छोटे-छोटे चित्र बनाती, उसका हाथ पकड़ कर उससे आम, सेब, गेंद, चिड़िया बनवाते, कुछ लिखवाते, उसे कुछ करने को कहते, लेकिन जो उसके मन में होता, वह वही करती। डायरी के सख्त मुखड़े यानी कवर के अंदर वाले हिस्से पर बार बार पेंसिल चलाती। उसे अभी से कुछ खास रंग पसंद आने लगे और एक ही तरह की आकृतियां बार-बार बनाना भी।
यों भी इंसान अपने प्राकृतिक स्वरूप में खुद को जब अभिव्यक्त करता है तो वह उसके अंतर्मन में होने वाली उथल-पुथल ही होती है। बच्ची की खुशी, गुस्सा, जल्दी या मस्ती उसकी चित्रकारी में साफ दिखने लगे। जब उसका मन करता, पेंसिल छोड़ देती और डायरी बंद कर हाथ के इशारे से साफ कर देती कि लिखने-पढ़ने का समय खत्म हो गया, अब उसके पसंद की कविताएं टीवी पर चला दो। गुलजार का लिखा ‘लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा’ उसे बेहद पसंद आता। उसका बचपन बताता रहा कि जिंदगी होश संभालते ही कुछ न कुछ सीखने के लिए तैयार रहती है। काफी पसंद और नापसंद विरासत में मिलती है। नया वही सीखती है जो दूसरी जिंदगी उसे सिखाती है।
यह सीमित सुविधा भी कितने बच्चों के पास उपलब्ध रह गई है। तेजी से बदलते समाज और चलन में अब हर घर में दादा-दादी या नाना-नानी उपलब्ध नहीं हो पाते। जहां होते हैं, वहां छोटे बच्चों की मौज हो जाती है। उनकी उम्र में कितना अंतर होता है, लेकिन बुजुर्गों के मित्रवत और समझदारी भरे व्यवहार के कारण बच्चों के साथ उनकी पक्की दोस्ती हो जाती है। उनके साथ खेलते, खाते, सीखते बचपन सहजता से बीतता है।
बच्चे पढ़ना-लिखना शौक से बेहतर करते हैं। खाने और खेलने के सामान की नई सूची बनाते रहते हैं। बच्चों को मोबाइल फोन या टीवी की जरा भी जरूरत महसूस नहीं होती, क्योंकि उनसे बातें करने, उनकी छोटी-छोटी दिलचस्प जरूरतें समझने, पूरी करने के लिए उनके दोस्त होते हैं। उन्हें वे अपने जैसा ही मानते हैं। उनके साथ खेलते और सोते हैं। उन पर पूरा अधिकार जमाते हैं। बुजुर्गियत, बचपन और जिंदगी की जुगलबंदी कमाल करती है।