अनिल त्रिवेदी
हम सबका जीवन मूलत: बंधनमुक्त है। हम इस सनातन सत्य को जानने और समझने के बाद भी इस जगत में अपने जीवन को नित नए बंधनों में निरंतर बांध कर अपना जीवन बिताने के आदी होने के साथ ही कई तरह के बंधनों में आजीवन बंधे रह कर मुक्त, सहज और सनातन जीवन पाकर भी बंधनों को ही जीवन मान लेते हैं। जीवन का मूल स्वरूप शांत, सरल और सहजीवन में व्याप्त है। मनुष्य अपने मूल स्वरूप में जीवन की सनातन सभ्यता का साकार अंश है।
अंश से ही जीवन और जगत का साकार स्वरूप अभिव्यक्त होता है। जीव, जीवन और जगत के सनातन प्रवाह से ही हमें अनंत कालक्रम का ज्ञान मिला। मन, बुद्धि और शरीर के माध्यम से ही जीवन में विचारों और अनुभूतियों की सभ्यता का उदय होकर जगत के हरेक अंश में सदा के लिए चिंतन मनन और विचार के विभिन्न रूपों की धारा अनुभव, ज्ञान और अनुभूतियों के रूप में आजीवन मनुष्य जीवन में समाहित होती रहती है। जीवन दरअसल ऊर्जा का साकार स्वरूप है। जगत आधार रूप है और जीव काल की ऊर्जा का साकार अंश है, जो शून्य से अनंत में इस तरह समाया हुआ है, जिसे कभी कोई अलग नहीं कर सकता। विचार, प्रकाश और वायु- तीनों ऊर्जा की सनातन तरंगें हैं।
इन्हें हमेशा के लिए बांधा नहीं जा सकता है। कृत्रिम उपायों से कुछ समय इन्हें रोका जरूर जा सकता है। विचार, वायु और प्रकाश, जगत में जीवन की गति का निर्धारण करने वाली मूल ऊर्जा हैं। प्रकाश होते हुए भी अंधकार में रहना, आकाश वायु का अनंत विस्तार होने पर भी खुली हवा से वंचित रहना। जीवन की जड़ता को प्राणप्रण से मानना और चेतन तत्त्व को नकारना यानी अपने मूल स्वरूप को ही नकारना है। विचार भी मूलत: प्रकाश और वायु की तरह मुक्त स्वरूप में ही है।
हम सब विचारों के मूल स्वरूप को छोड़ बनावटी स्वरूप के साथ जकड़ जाते हैं और विचार की ऊर्जा जीव, जगत और जीवन को व्यक्तिश: और सामूहिक रूप से जीवन के आनंद के बजाय अनवरत तनावपूर्ण वातावरण में व्यक्ति और समाज को धकेल देती है। तब व्यक्ति और समाज का एक अंश अपनी अनोखी वैचारिक ऊर्जा को किसी संगठन की रोगग्रस्त एकांगी विचारधारा को ही अपना जीवन मान लेता है। प्रकाश और वायु की तरंगों को कोई व्यक्ति या व्यवस्था रोक देती है तो मनुष्य प्राणप्रण से अंधेरे से उजाले और बंद हवा से खुली हवा में आने का हर संभव उपाय करता है।
पर विचारों के साथ ऐसी तत्परता हमें अनुभव नहीं होती। विचारों के बनावटी रूप से बनाई सीमाओं से मुक्त होना हर समय सभी के लिए संभव नहीं होता। इसी से बनावटी विचारों से अलग होना या विचारों की यांत्रिक जड़ता को समझ कर मुक्ति का मार्ग खोजना, प्रकाश और वायु की रुकावटों से मुक्त होने जैसा सरल नहीं है। अंधकार है तो प्रकाश की ओर बढ़ें, धूल और धुआं है तो दूर हट जाएं स्थान बदल दें या तात्कालिक उपाय स्वरूप नाक को ढक लें, पर अंधेरे और धूल धुएं से एकाकार न हों। अन्यथा जीव और जीवन असमय खतरे में पड़ जाएगा। लेकिन विचार के साथ मनुष्य बड़े बंधन में बंध जाता है।
सनातन समय से सनातन विचार हमें बंधन यानी वैचारिक बंधन से मुक्त रहने का सरल पथ समझाते आए हैं। पर हम वैचारिक बंधनों से मुक्त न हो ‘तेरे-मेरे’ की बनावटी यांत्रिक उलझनों में ही उलझे रहते हैं। प्रकाश और वायु की जीवनी शक्ति से मनुष्य ने किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की, पर अंधेरे और वायु प्रदूषण से उबरने के विकल्प सोचे। विचार की शक्ति से अंतहीन छेड़छाड़ के साथ ही विचार को जकड़बंदी के बनावटी जाल में जकड़ने और यंत्रवत विचार बनाने के प्रयोग मनुष्य के मन में व्यक्तिश: और सामूहिक रूप से चल रहे हैं। अनुशासन और व्यवस्था के नाम पर विचारहीन मनुष्यों का भीड़तंत्र एक नया औजार है।
मनुष्य की वैचारिक ऊर्जा को निस्तेज करने का। तन से तो मनुष्य दिखे, पर विचारों से यंत्रवत जड़ता वाला रोबोट हो। रोबोटिक समाज की सभ्यता का जीवन दर्शन क्या सनातन सभ्यता के दर्शन के मूल को अपने जीवन में विस्तार दे पाएगा? विचारहीन और आज्ञानुरागी मनुष्य का वर्तमान और भविष्य जीवन की ऊर्जा के बजाय यंत्र की तरह आज्ञाधारित होगा। तब सनातन विचार का दर्शन जीव, जीवन और जगत की गतिशीलता का केंद्रबिंदु किसे मानेगा? विचार मूलत: जगत, जीवन और जीव की प्राण प्रतिष्ठा की तरह है।
जैसे प्रकाश के अभाव और वायु के प्रदूषण से जीव और जीवन में रोगग्रस्तता आ जाती है, वैसे ही विचार की जड़ता से जीव और जीवन का मूल ही गतिहीन हो अपने मौलिक स्वरूप और चेतना को सुप्तावस्था में ले जाता है। यह सब होते हुए भी जीव, जीवन और जगत की मूल गति, सनातन सभ्यता के स्वरूप में ही बनी रहती है। काल के चक्र स्वरूप जीव में चेतना और जड़ता की लहरें आती रहती हैं। जैसे लहरें समुद्र नहीं हैं और समुद्र लहरें नहीं हैं। वैसे ही जीव, जीवन और जगत सनातन ऊर्जा का मूल स्वरूप है जो अपने आप में भिन्न भी दिखाई देता है और सनातन रूप से अभिन्न भी है।