रमेश चंद मीणा
दुनिया को समझने के लिए एक जीवन बहुत छोटा होता है। कुछ इसे समझने, समझाने और निपटने का दावा करते हुए नेतृत्व कर लेते हैं। कुछ शासक बन जाते हैं, तो बाकी बचे शासित होने के लिए रह जाते हंै। दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रहती है। औरों की तो छोड़िए पति-पत्नी जिंदगीभर दो छोर पर बने रहते हुए जी लेते हैं। वे एक-दूसरे को बदलने की उम्मीद में लगे रहते हैं। दुनिया रहस्यमय है, इसे सुलझाने वाला उलझता ही चला जाता है। जीवन बेहद उलझा हुआ है, डराने और भयभीत कर डालने वाला है। यही कारण है कि जीवन को सहज बनाने के लिए भीड़ मंदिरों के चक्कर काटती देखी जा सकती है। पूरा एक सप्ताह पत्नी के साथ इस भीड़ का हिस्सा बन कर ऐसा ही लगा। सिकंदराबाद काम से जाना हुआ तो पत्नी को अच्छा अवसर मिल गया, बोलीं-‘क्यों न तिरुपति बालाजी के दर्शन कर लिए जाएं!’
मरता क्या न करता! सो योजना में मंदिर भ्रमण शामिल कर लिया गया। हैदरबाद बिड़ला मंदिर से शुरुआत हुई। हर प्रदेश की राजधानी में बिड़ला मंदिर स्थापित है। सो हैदराबाद कैसे बच सकता था! पत्नी ने लोगों का बहाना बनाया कहा-‘यहां लोग कह रहे हैं बिड़ला मंदिर से बहुत अच्छा दृश्य बनता है, क्यों न देख लिया जाए?’ जबकि बिड़ला मंदिर जयपुर में देखा जा चुका है, वैसा ही है, इसमें देखना क्या है? सवाल अधर में लटका रह जाता है और मंदिर यात्रा की शुरुआत होती है, हैदराबाद के बिड़ला से।
बिड़ला मंदिर जयपुर की ही तरह हैदराबाद में भी पहाड़ी पर स्थित है। फर्क इतना है कि यहां भीड़ का अच्छा खासा जमावड़ा था। भीड़ रुक-रुक कर आगे बढ़ती है। मंदिर के चारों तरफ दूर-दूर तक जहां तक नजर जा सकती है, हैदराबाद का फैलाव अंधेरी रात में रहस्यमय दिखाई देता है। रात की जगमग रोशनी में नहाया हैदराबाद बेशक बड़ा खूबसूरत लगता है। मैं पत्नी के साथ बिजली की रोशनी में शहर देख कर चमत्कृत होता हूं और अगले पायदान पर तिरुपति के लिए बढ़ जाता हूं। ‘दर्शन दुर्लभ हैं बालाजी के।’ बार-बार सुना जाता है। सो पहले से ही सारी व्यवस्था चाकचैबंद करके उस जगह सुबह ही पहुंच जाते हैं, जहां हम खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से शुरू होती है की भावना के साथ। हर दर्शनार्थी के हाथ में वीआइपी टिकट हैं।
पहले पायदान पर ही यह कहते हुए रोका गया कि बिना धोती अंदर नहीं जा सकते हैं। सो तीन सौ रुपए की धोती खरीदी जाती है। आगे बढ़े तो आठ-दस कंप्यूटर पर आधार कार्ड चैक किया जाता है। फिर दस मिनट के लिए भीड़ ठहर जाती है। अब सभी दर्शनाथिर्यों को न केवल मैटल डिटेक्टर से अपित पूरी तरह चैकिंग से गुजरना पड़ता है। आगे-पीछे सांप की तरह बल खाती, अजगर की तरह सरकती लंबी भीड़ है जो कभी ठहरती है, ठिठकती है तो कभी दौड़ कर बैठती है। एक के मुंह से निकला नहीं ‘गोविंदा’ कि फिर आगे से पीछे तक एक ही आवाज गूंजने लगती है।
भीड़ कैसे पैदा की जाती है, कैसे बनती है, इसकी लंबी परंपरा है, आस्था के स्थानों की। बावजूद विज्ञान और शिक्षा के आज भी बरकरार है। धर्म में प्रबल आस्था विज्ञान को पराजित किए दे रही है। सारे वैज्ञानिक आविष्कार लैपटॉप, आॅन लाइन पेमेंट, बुकिंग, अनुशासन, भव्य आर्किटेक्ट, ऐश्वर्य का घटाटोप, तकनीकी का पूरा उपयोग करना आदि ऐसे उपक्रम रहे हैं जिनसे भीड़ स्वत: ही आश्चर्य में डूब जाती है, भक्त चमत्कृत हो उठता है। दर्शनार्थियों के मन में भावना का प्रबल उफान मारने लगता है और बालाजी की शक्ति को सारा श्रेय दे डालते हैं। देखो कितनी शक्ति है! सबकुछ इनके बल पर ही संपन्न हो रहा है। लोग किस तरह से व्यवस्थित, सुनियोजित और अनुशासनबद्ध हैं!! घोर आश्चर्य और आस्था में नत सिर और मन श्रद्धा के अथाह सागर में डूब जाता है। कौन मूर्ख होगा जो सवाल उठाएगा? पत्नी इस निगाह से देखती है जैसे कह रही हो-‘देखो बालाजी का प्रताप! कितना धन? कितना सोना? और कितने लोग दान किये जा रहे हैं? यूं ही नहीं है यह सब?’
कार्यकर्ता नुमा भक्त डंडा लिए दो सेकंड में आगे धक्का मार देते हैं-‘आगे बढ़ो, आगे बढ़ो।’ लोग एक झलक पाकर खुश हो लेते हैं। भीड़ खुश है, समंदर की लहर की तरह स्वत: ही बढ़ रही है, कई किलोमीटर से आ रही है। और वे जो तिरुपति स्टेशन से ही पैदल चलकर आ रहे हैं? वाह क्या आस्था है? भक्तों में कितनी श्रद्धा है? यही तो भीड़ का मनोविज्ञान है। यही भीड़ लोकतंत्र का भी बेड़ा गर्क किए दे रही है और वही भीड़ यहां है। जनता भोली, भक्त भोले और जब भक्त भीड़ में होता है तब वह अपने को बली समझता है। यह भारत देश की सामाजिकता और पारंपरिकता रही है जो अब राजनीतिक सच्चाई भी हो चली है।