बीस-बाईस साल से किराये के मकान में रहते हुए दिल्ली के एक इलाके से दूसरे इलाके में घूमते-घूमते परेशान हो गए। किराये के मकान में एक कील भी ठोकनी हो तो सोचना पड़ता है। लोगों ने पहले भी समझाया कि आप एक मकान खरीद क्यों नहीं ले लेते! तो पहले हमने अनसुना कर दिया था, लेकिन अब हम इस अभियान पर जुट गए हैं। शुरुआत में जिन इलाकों में हमने घर की तलाश शुरू की, वहां मकानों की कीमत अपने बजट से बाहर निकली। छतरपुर, महमदपुर, अर्जुन नगर में सस्ता मकान मिलने की खबर लगी। उम्मीद बंधी कि चल के देखा जाए। फिर पता चला जो सस्ते मकान मिलेंगे, उन पर लोन नहीं होगा। कुछ मकान फ्रीहोल्ड नहीं थे, तो कुछ की रजिस्ट्री नहीं होती। कुछ मामलों में नकद रुपयों की जरूरत थी तो अपनी जमापूंजी का मेल नहीं बैठा और फिर मकान खरीदने का मामला कुछ साल सुस्त पड़ गया। पति-पत्नी दार्शनिक भाव से सोचने लगे कि बस बच्चे पढ़-लिख लें तो बुढ़ापे में हम गांव चले जाएंगे। कौन दिल्ली की झंझट में रहेगा, यहां प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है और भीड़ भी!

हम कुछ साल अपने नौकरी-बच्चों में व्यस्त हो गए। इस बीच कई दोस्तों ने गाजियाबाद के वैशाली-वसुंधरा, नोएडा-ग्रेटर नोएडा में अपना आशियाना बना लिया। एक बार फिर हमने मकान की तलाश शुरू की। बच्चों का स्कूल, पत्नी का कार्यस्थल, नोएडा-गाजियाबाद से दूर था, तो एनसीआर में कहीं दूर मकान खरीदने और किराये के साथ बैंक का लोन देने का विकल्प उपयुक्त नहीं लगा। एक प्रॉपर्टी डीलर जो पहले चार्टर्ड आकउंटेंट थे, उनकी कही बात याद आई-‘मास्टर लोग पैसा कम और विकल्प ज्यादा लेकर मकान ढंूढ़ते हैं’! लेकिन हमने हार नहीं मानी।

नोटबंदी के बाद मकानों के दाम नीचे आने की खबर से अपने हौसले बुलंद हुए। कुछ प्रॉपर्टी एजेंट हमारा बजट सुनते ही कहते, इस बजट में इस इलाके में नहीं मिलेगा! एक प्रॉपर्टी एजेंट से फोन पर बात हुई। हम पति-पत्नी उसके ‘दफ्तर’ पहुंचे। छोटी-सी जगह में छह लोग बैठे थे। हमारा छोटा-सा इंटरव्यू लिया उन्होंने। पूछा- क्या करते हैं? कहां रहते हैं अभी? कितना बजट है? कितना कैश देंगे? लोन भी लेंगे?

इंटरव्यू के बाद दो बॉडी बिल्डर एक बुलेट पर सवार हुए। हमको भी एक बाइक दे दी और मकान दिखाने चल पड़े। कई सालों के बाद मैंने डरते-डरते बाइक स्टॉर्ट की थी। हम थोड़ा सशंकित भी थे। गली-गली घूम कर हमने कुछ मकान देखे। दो सौ गज के प्लाट पर, पुराने मकान गिरा कर तीन-चार मंजिल के मकान बने थे। उन मकानों में पतली सीढ़ी-एक छोटी लिफ्ट का भी प्रावधान था, लेकिन कीमतें हमारे बजट से अधिक थीं। चलने से पहले फिर हमारी तरफ सवाल आया, ‘कौन सा पसंद आया’? हम गोल-मोल जवाब देकर वहां से निकल आए।

फिर पूर्वी दिल्ली में शुरू हुई तलाश। बजट थोड़ा बढ़ाया। कुछ इलाकों में बिना लिफ्ट के टॉप फ्लोर के विकल्प मिले। सोचा, चलो एक फाइनल कर लेते हैं। तब तक किसी ने अपना अनुभव बताया-‘बिना लिफ्ट के टॉप फ्लोर मत लेना, बहुत दिक्कत होती है, गर्मी लगती है और बाद में जल्दी बिकता नहीं है।’ हम डर गए। फिर डीडीए वाले मकान देखे। किसी ने कहा- ‘डीडीए वाले मकान बहुत पुराने हो चुके हैं, पानी की दिक्कत होती है, आप रोज प्लंबर-इलेक्ट्रीशियन बुलाते रहेंगे।’ फिर सलाह आई, ‘ढंग के अपार्टमेंट में घर लेना, बच्चों के लिए ठीक होता है, पढ़े-लिखे लोग रहते हैं, सिक्योरिटी रहती है।’ लंदन में रहे एक दोस्त से बात की तो उनका कहना था कि घर की लोकेशन अच्छी होनी चाहिए बस यह ध्यान रखिएगा!

अभी तक हम दो बैडरूम के फ्लैट देख रहे थे। इसी बीच, मेरे एक दोस्त मिलने आए तो उन्होंने कहा- तीन बैडरूम का लेना चाहिए। आप लोग सामाजिक व्यक्ति हैं, कोई न कोई मेहमान तो आता-जाता रहेगा और फिर एक कमरा, अपने पढ़ने-लिखने का भी होना चाहिए! फिर क्या था, हमने कुछ थ्री बैडरूम फ्लैट भी देख डाले।

पिछले छह-सात महीनों में हमने इस विषय पर काफी शोध किया। सोसाइटी के गार्ड-केयरटेकर से लेकर चलते-फिरते प्रॉपर्टी डीलरों के नेटवर्क का अंदाजा हुआ। रियल बजट और ‘मांगने वाले बजट’ का भी कुछ मर्म समझ में आया। दो-तीन बार मकान के मालिकों से मीटिंगें हुर्इं, लेकिन बात अभी बनी नहीं है! मुझे अब किराये के मकान का विकल्प भी ठीक ही लग रहा है। इसमें लोन का दबाव भी नहीं रहेगा और शहर में मकान नहीं होगा तो होली-दिवाली में बच्चों का गांव आना-जाना लगा रहेगा। दिल्ली से जब निकलना हो तो आसानी से निकल भी सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह भी है कि हमारा गांव, कागज में ही सही, एक और पीढ़ी तक स्थायी पते में दर्ज होता रहेगा।