राज वाल्मीकि

हाल में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिनमें युवाओं की विचित्र मानसिकता का पता चला। कुछ नाबालिग किशोरों ने अपने दोस्तों पर रोब जमाने के लिए एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या कर दी। एकतरफा प्यार में युवकों ने युवतियों की हत्याओं को अंजाम दिया, फिर खुद को भी गोली मार कर आत्महत्या कर ली या फरार हो गए। उनमें से कई गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए। वे अपना बाकी का जीवन जेल में बिताएंगे और हत्या के गुनाह का दिल-दिमाग पर बोझ लिए ताउम्र तनाव में जीएंगे।

आखिर लड़कियों की जान लेकर उन्हें हासिल क्या हुआ? क्यों उनमें इस तरह की प्रवृत्ति उभरी कि जो लड़की मेरी नहीं हो सकती उसे किसी दूसरे की भी नहीं होने दूंगा। किसी लड़की या महिला को अपनी संपत्ति समझने का हमें क्या अधिकार है? वह किससे प्यार करेगी किससे नहीं, यह तय करने वाले हम कौन होते हैं? अपना जीवन अपनी तरह से जीने का अधिकार सबको है।

कोई बड़ा होकर कैसा इंसान और नागरिक बनेगा, इसकी नींव बचपन में ही रखी जाती है। कहते हैं कि बच्चे के सबसे पहले शिक्षक उसके माता-पिता और परिवार के लोग होते हैं। फिर वह स्कूल जाता है, जहां उसके शिक्षक होते हैं, सहपाठी होते हैं। बच्चा अपने घर से, आसपास के माहौल से और स्कूल तथा दोस्तों से बहुत कुछ सीखता है। माता-पिता बच्चों को अच्छे संस्कार देते हैं। उनका सपना होता है कि उनका बच्चा बड़ा होकर एक अच्छा इंसान बने। अपने माता-पिता और खानदान का नाम रोशन करें।

इस सबके बावजूद हम बच्चों में ऐसे संस्कार क्यों नहीं दे पाते कि बड़े होकर उनमें ‘जीओ और जीने दो’ की भावना विकसित हो। अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों का बोध हो। उनमें भाईचारे और मानवता की भावना का विकास हो। उनमें एक अच्छे नागरिक के गुण पैदा हों। स्त्री-पुरुष समानता का भाव विकसित हो। परोपकार की भावना हो। बच्चों में बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय वाली सोच हो। पर ये संस्कार बच्चों में हैं नहीं, आखिर कमी कहां है? ऐसा भी नहीं है कि माता-पिता ऐसे अच्छे संस्कार देना नहीं चाहते।

अच्छे संस्कारों के बजाय हमारे युवा बुरी आदतें अपना रहे हैं, जैसे वे नशे के आदी हो रहे हैं। हमारे युवा नशे की लत का शिकार या अभ्यस्त क्यों हो रहे हैं? कहीं हमारी परवरिश में ही तो कोई कमी नहीं? क्या हम उनके लिए जितना समय देना चाहिए, दे पा रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम ही जीवन की आपाधापी में इतने व्यस्त हो गए हों कि हमारे बड़े होते बच्चों के लिए हमारे पास समय ही नहीं हो। हम अपनी ही दुनिया में मस्त और व्यस्त हों।

अपने युवा बच्चों पर समुचित ध्यान नहीं दे पा रहे हों? क्या हम ऐसे टिपिकल माता-पिता हैं जिनसे युवा बच्चे अपने दिल की बात साझा नहीं कर पा रहे हैं? क्या हम उनसे दोस्ताना व्यवहार कर पा रहे हैं? क्या हम यह समझ पा रहे हैं कि हमारा बच्चा किसी समस्या से तनाव या डिप्रेशन में है और वह हमें बता नहीं पा रहा है? क्या हम इस बात पर ध्यान दे रहे हैं कि हमारा बच्चा चिड़चिड़ा-सा हो गया है? हमसे दूरियां बनाने लगा है? ऐसे में हम उससे अपनापन जता कर ही उसकी समस्या या तनाव की वजह जान सकते हैं।

हकीकत यह है कि ज्यादातर रसूख वाले और रईसजादों के बेटे बिगड़े हुए निकलते हैं। नशा और अय्याशी करना इनकी जीवन शैली का हिस्सा है। ये अपनी हवश मिटाने के लिए किसी भी सड़क चलती लड़की को अपनी कार में उठाने का दुस्साहस करते हैं। चलती कार में गैंगरेप करते हैं। फिर या तो उसकी हत्या कर देते या उसे कहीं फेंक कर चले जाते हैं। इन्हें कानून का डर नहीं होता। अब तो यह चलन मध्यवर्गीय युवाओं में भी देखने को मिल रहा है। ये लोग अपने खर्चे पूरे करने के लिए अपराध तक करने से नहीं हिचकते। इनका एक ही सिद्धांत होता है- ‘कैश है तो ऐश है’। अब तो युवतियां भी ऐश की जिंदगी जीने के लिए धोखाधड़ी और अपराध की दुनिया में कदम रख रही हैं।

दूसरी ओर आपा खोते युवाओं की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। जरा-जरा सी बात पर वे हत्या जैसी वारदात को अंजाम दे रहे हैं। किसी मामूली विवाद में ये लोगों से मारपीट कर लेते हैं। युवाओं को इतना गुस्सा क्यों आ रहा है? बढ़ती बेरोजगारी? यौन संतुष्टि न मिलना? मोबाइल पर पोर्न की सहज उपलब्धता?

ऐशो-आराम की जिंदगी जीने की प्रबल इच्छा? घोर स्वार्थ की भावना? आसपास के वातावरण की संवेदनहीनता? प्रश्न बहुत से हैं और कारण कोई भी हों, पर निश्चय ही यह खतरे की घंटी है। हमारे ये युवा होते बच्चे ही भविष्य के इस देश के नागरिक हैं। हम कैसे इन्हें अच्छे संस्कारों वाले अच्छे नागरिक बनाएं- यह गंभीर प्रश्न हमारे सामने है।