राजेंद्र प्रसाद
बहुत से लोग आनंद के विषय में चिंतन करते हैं और चाहते हैं कि आनंद उनके पास मौजूद रहे। हमारे मन-मस्तिष्क में जो चीजें बसी होती हैं, उनके माध्यम से ही आनंद या विषाद बाहर की तरफ आता है। उसके लिए सबसे पहले हमें अपने चिंतन के स्तर को सुधारना होगा। मोटे तौर पर हमारे मन-मस्तिष्क में क्या है, हम किसी भी बात को किस तरह से सोचते हैं और किस वातावरण में आप रहते-विचरते हैं- इनके मिश्रण से ही आनंद आपके पास पहुंचता है और अंदर से बाहर निकलता है। इसके अलावा, एक आनंद वह भी है जो हम दूसरों से अनुभव करते हैं। दूसरे से आनंद की अनुभूति तब होती है जब हम उस व्यक्ति को अपने जीवनदर्शन में पचा लेते हैं।

आनंद कोई ऐसा शब्द नहीं है जो शब्दकोश में पढ़ा या कहीं से सुन लिया और आनंद महसूस होने लगा। आनंद हमारे काम, चिंतन, वचन में है। यानी मन-कर्म-वचन से हम जो कार्य करेंगे, अगर आनंद उन सबका लक्ष्य, आधार और प्रयोजन है और उसके लिए हम निरंतर काम करते हैं तो आनंद की डगर को पाना आसान है। इस बात के लिए हमें अपने आपको ऐसे सांचे में ढालने की आवश्यकता है कि हम आनंद को आनंद की तरह ही देखें और कुछ भी काम करें, सबसे पहले हम उसके कारण, उद्देश्य और परिणाम पर जाएं। अगर कारण हमें समझ आ गया और उसका उद्देश्य समझ लिया तो आनंद का परिणाम उसके अनुसार ही मिलेगा।

महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि सब्र-संतोष आनंद के पौधे के साथ जड़ की तरह सबसे नजदीक से जुड़ा होता है। शांति के साथ उसका पोषण किया जाता है। खर-पतवार की तरह आंनद को ईर्ष्या से बहुत खतरा होता है और आनंद बढ़ाने की खातिर उससे जितना मुक्?त हो सकें, उतना ही अच्छा है। ये सब बातें भी आनंद के विस्तार के साथ जुड़ी होती हैं। सच यह है कि मृग-मरीचिका की तरह हम आनंद बाहर खोज रहे होते हैं, पर आनंद का खजाना तो हमारे मन की डोर से जुड़ा है। इसलिए दुनिया की चीजों में आनंद की तलाश फिजूल है। कुदरत ने तो आनंद ही आनंद दिया है, दुख तो हमारी खोज है। इसीलिए कहा गया है कि शिकवे तो सभी को हैं जिंदगी से, पर जो जीवन को आनंद से जीना चाहते हैं, वे शिकायत नहीं करते।

आनंद के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि हम अपेक्षाएं अपने जीवन में बहुत ज्यादा न पालें। अपेक्षाओं के कारण ही व्यक्ति बहुत परेशान होता आया है। इससे तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंदर की गतिविधियों से बेखबर व्यक्ति अपेक्षाओं के जंजाल में दिग्भ्रमित होकर आनंद कहीं और ढूंढ़ने में लगा रहता है। कभी-कभी उसमें खुद के लिए ही उपेक्षा भाव पैदा हो जाता है। अपेक्षा और उपेक्षा के द्वंद्व व्यक्ति के आनंद से प्रत्यक्ष और परोक्ष जुड़े होते हैं। पर-निंदा रस और पर-दोष दर्शन भी हमारे आनंद को कम करते हैं। कहा यह भी जाता है कि पर-निंदा आरंभ में मजा और अंत में सजा देती है।

दरअसल, आनंद एक ऐसा आभास है, जिसे हर कोई ढ़ूंढ़ रहा है और दुख एक ऐसा अनुभव है जो आज हरेक के पास है। फिर भी जिंदगी में वही कामयाब है, जिसे खुद पर विश्वास है। एक व्यक्ति ने एक फकीर से पूछा- आनंद का बेहतरीन दिन कौन-सा है! फकीर ने प्यार से कहा- ‘मौत से एक दिन पहले।’ व्यक्ति ने कहा- ‘मौत का तो कोई वक्त नहीं।’ फकीर ने मुस्कराते हुए कहा तो जिंदगी का हर दिन आखिरी दिन समझो और जीने का आनंद लो। इसलिए कभी उत्तम पल का इंतजार न करें। हरेक पल का आनंद लें और उसे उत्तम बनाएं। आनंद के लिए छोटा या बड़ा होना जरूरी नहीं है। जो आनंद अपनी छोटी पहचान बनाने में है, वह किसी बड़े की परछाई बनने में नहीं है।

शिक्षा के माध्यम से हमें जो चीजें पढ़ने या सुनने को मिलती हैं, उनमें आनंद कम-से-कम होता है क्योंकि अमूमन पढ़ाई में इस तरह की चीजों का समावेश नहीं, होता जिससे आनंद के साथ हम अपने काम उस तरह करने की आदत डालें या हमारा चिंतन इस तरह का हो, जिससे हमें अपने किए हुए काम के परिणाम के रूप में आनंद अपने आप मिलता रहे।

हमारे पास जो कुछ है, उसका आनंद तभी ले पाएंगे, जब हमारे पास जो नहीं है, उसकी चिंता छोड़ेंगे। समझ लीजिए, जीवन एक यात्रा है, इसे जबर्दस्त तरीके से बिताएं। सुखी रहना है तो दूसरों की परेशानी में कभी आनंद नहीं लेना चाहिए, क्योंकि कहीं कुदरत हमें वही परेशानी तोहफे में न दे दे। कहा भी गया है कि कृतज्ञ हृदय और शांत चित्त व्यक्ति से आनंद कभी दूर नहीं रहता। जीवन एक बांसुरी की तरह है, जिसमें छेद और खाली जगह हो सकती है, लेकिन अगर आप सावधानी से उसका हुनरमंद होकर इस्तेमाल करेंगे तो उसका आनंद ले सकते हैं। आनंदित व्यक्ति सूर्य की रोशनी के समान होता है जो दूसरों को भी प्रकाशित करता है।

जिंदगी छोटी है, वक्त तेजी से भाग रहा है जो दोबारा लौट कर नहीं आएगा, इसलिए हर पल का आनंद लें। आप अकेले बोल तो सकते हैं, पर बातचीत नहीं कर सकते। वैसे ही आप अकेले आनंदित हो सकते हैं, पर आनंद का उत्सव नहीं मना सकते। इसके लिए आपको आसपास का माहौल आनंदित बनाने की जरूरत होती है।