कुमकुम सिन्हा
तीन दशक से भी पहले की बात है। मैं अपने पड़ोसी के घर गई थी कुछ काम से। उनका संयुक्त परिवार था। तीन पीढ़ियों के लोग एक साथ रहते थे। इस वजह से बड़ा मान था समाज में उस परिवार का। मैं आंटी से अपने काम के सिलसिले में बात कर रही थी और अंकल अपने आठ वर्षीय पोते को बड़े प्यार से च्यवनप्राश खिला रहे थे। इस बीच उनकी छह वर्षीया पोती उनके पास आई और च्यवनप्राश खाने की जिद करने लगी। मैंने देखा अंकल ने फौरन उसे अपने पास से दूर कर दिया, यह कहते हुए कि ‘जा-जा, तू क्या खाएगी च्यवनप्राश।’ दरअसल, उनका आशय था कि च्यवनप्राश जैसी गुणवत्ता वाली चीजें लड़कों के खाने के लिए होती हैं। लड़कियों को ऐसी चीजें खिलाने से कोई फायदा नहीं, क्योंकि उन्हें आखिरकार दूसरे के घर जाना होता है। वह छोटी-सी बच्ची तो कुछ भी नहीं समझी सिवाय इसके कि उसके दादा जी उसे चयवनप्राश खिलाना नहीं चाहते, लेकिन मैं अंदर तक हिल गई।

ऐसा नहीं कि समाज के लिए यह कोई नई बात है या मैं पहली बार ऐसे तीखे अनुभव से गुजर रही थी, लेकिन जिस तरह का बर्ताव अंकल ने अपनी अबोध पोती के साथ किया, वह बहुत दुखद था। और यह भी कम दुखद नहीं है कि यह व्यथा कथा या यों कहें कुप्रथा आज भी हमारे घर-परिवारों में कायम है। लड़कियों के साथ खान-पान का भेदभाव चलता रहा है। हां, कुछ गिने-चुने घर जरूर होंगे जहां उन्हें लड़कों के बराबर पोषक आहार दिया जाता है। उनके स्वास्थ्य को लेकर माता-पिता काफी चिंतित रहते हैं। लेकिन असलियत तो यह है कि आज भी अधिकतर घरों में अच्छी-अच्छी चीजें लड़कों को ही दी जाती हैं और रूखा-सूखा लड़कियों को। तब मैं उन्नीस साल की थी। दिल अगर जोश और उत्साह से भरा तो दिमाग सवालों से। आखिर लड़कियों के प्रति इतनी बेरुखी क्यों? क्यों अच्छे खाने-पीने के उनके हक को छीना जाता है? क्यों उनके दिल-दिमाग में यह बिठाने का प्रयास किया जाता है कि उनकी तंदरुस्ती, उनका स्वास्थ्य ज्यादा महत्त्व नहीं रखता, क्योंकि वे लड़कियां हैं?

चूंकि उन्हें दूसरे के घर जाना है और वहां भी घरेलू काम ही करना है, इसलिए वे अच्छे खान-पान, शिक्षा की हकदार नहीं हैं। लड़कियों को हर हाल में घरेलू काम ही करना है, यह क्यों तय है? ऐसी बात मुझे तब भी परेशान करती थी और आज भी, क्योंकि हालात आज भी कमोबेश वैसी ही है। आज भी हमारा पितृसत्तात्मक समाज हर तरह से लड़कियों को कम आंकने और उन्हें कम अवसर देने में विश्वास रखता है। यहां तक कि पौष्टिक आहार भी उन्हें लड़कों जैसा नहीं मिल पाता। गरीब और कम सुविधासंपन्न परिवारों में लड़के-लड़कियों के बीच का भेद कुछ ज्यादा ही मुखर हो जाता है।

सवाल यह है कि जब हम लड़कियों को सही पोषण देंगे ही नहीं तो फिर उनका शारीरिक और मानसिक विकास कैसे होगा! जब वे इन दोनों स्तरों पर कमजोर होंगी तो समाज-देश तो दूर, अपने लिए भी कुछ नहीं कर पाएंगी। कुपोषित लड़कियां जब समय से पहले ही परिवार-समाज की नजरों में विवाह के लायक हो जाती हैं और ब्याह दी जाती हैं, तब आगे की स्थिति और भी भयानक और दर्द देने वाली होती है। पति के घर पहुंचते ही उनकी उम्र जैसे दस साल बढ़ जाती है और जिम्मेदारियां दस गुनी। समय पर नाश्ता-खाना बनाना, घर के पुरुषों को आदर-सम्मान के साथ समय पर खिलाना, उनकी तीमारदारी करना, उन्हें खुश रखने के लिए अपने चेहरे पर जबर्दस्ती का मुस्कान बिखेरना, वगैरह। उनके खाने की परवाह किसी को नहीं रहती।

हर घर का पुरुष वर्ग यह मान कर बैठा होता है कि औरतों की बारी अंत में आती है और उन्हें बचे-खुचे खाने से काम चलाना होता है। उनकी त्रासदी यहीं तक सीमित नहीं रहती। वे शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार भी नहीं होतीं और तब तक दो-तीन बच्चों की मां बन जाती हैं। इसके बाद वे और अधिक कमजोर हो जाती हैं। ऐसे माहौल में अगर बेटी की मां बनीं, फिर तो उनके बारे में क्या धारणा बनेगी, यह अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसा लगने लगता है कि जैसे बेटी पैदा कर उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो। तीस-पैंतीस तक पहुंचते-पहुंचते ऐसी कई लड़कियां या महिलाएं कई बीमारियों का शिकार बन जाती हैं।

हम सब जानते हैं कि जीवन एक बार मिलता है, जिसे संपूर्णता के साथ जिया जाना चाहिए। लेकिन लड़कियों के साथ भेदभाव करके हम उनसे ये अधिकार छीन लेते हैं। हम भूल जाते हैं कि वे भी लड़कों की तरह सपने देखती हैं और खुले आसमान में उड़ना चाहती हैं। लेकिन अच्छे खानपान के अभाव में वे कुंठित होकर रह जाती हैं। स्थितियां बदल तो रही हैं, लेकिन रफ्तार बहुत धीमी है, जिसे तेज करने की जरूरत है। लड़कियों को उत्तम आहार और बेहतर शिक्षा देना सब माता-पिता का कर्त्तव्य होना चाहिए, क्योंकि तभी वे तन-मन और दिमाग से स्वस्थ बन सकेंगी और घर-परिवार से लेकर समाज और देश की प्रगति में अपना यथोचित योगदान दे सकेंगी।