देवयानी भारद्वाज
जब स्कूल में पढ़ती थी तो ‘भारत मेरा देश है, समस्त भारतीय मेरे भाई-बहन हैं’ प्रतिज्ञा सुबह की सभा में शामिल होती थी। पिता केंद्र सरकार में अधिकारी थे, इसलिए मेरी पढ़ाई-लिखाई अलग-अलग शहरों के स्कूलों में होती रही। प्राथमिक कक्षाओं में वैदिक प्रवेशिका स्कूल था, जहां तीसरी कक्षा से संस्कृत पाठ्यचर्या का हिस्सा थी। उच्च प्राथमिक कक्षाओं में एक भिन्न राज्य में एक ऐसे निजी स्कूल में पढ़ रही थी, जिसके प्रबंधक मुसलमान थे। इस स्कूल में भी प्रतिदिन सुबह हमने आंंख बंद कर, हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, प्रतिज्ञा और राष्ट्रगान को दोहराया। इसके बाद भी सभी स्कूलों में हमने यह किया।
आगे कालेज और विश्वविद्यालय में भी तमाम अध्यापिकाएं गहरी मांग भर कर, चूड़ियां और पायल पहन कर आती रहीं। कुछ अध्यापिकाएं गलियारों से गुजरतीं तो पढ़ाई छोड़ सारे बच्चे बाहर देखने लगते। ये सारे प्रतीक आमतौर पर एक विशेष धर्म की स्त्रियां के द्वारा ही पहने जाते हैं। मुसलमान, सिख या इसाई महिलाएं स्वेच्छा से इनमें से कोई भी प्रतीक अपना लें, लेकिन उनकी इन्हें अपनाने की बाध्यता नहीं थी।
खुद अपने अनुभव से यह जानती हूंं कि एक सवर्ण हिंदू स्त्री को विवाह के तुरंत बाद से इन प्रतीकों को अपनाने के लिए तमाम दबाव झेलने होते हैं। मैं पत्रकार थी, लेकिन मेरी सास ही नहीं, पड़ोस की महिलाएं और दफ्तर की सहकर्मी तक मुझे इस बारे में हिदायत दिया करती थीं कि क्यों मुझे मांग में सिंदूर लगा लेना चाहिए या चूड़ी, पायल पहननी चाहिए। स्कूल में भी कम उम्र में ब्याह दी गई लड़कियां यह सब पहन कर आतीं तो अध्यापिकाएंं उन्हें कक्षा में आने से नहीं रोकती थीं। वे इसी में खैर मानती थीं कि कम से कम उसे पढ़ने से रोका नहीं गया।
कितनी ही बार सरकारी स्कूलों में तीज, चौथ जैसे अवसरों पर प्रधानाध्यापक के अधिकार से अवकाश घोषित किया गया। ये सरकारी स्कूल थे, इनसे धर्मनिरपेक्ष होने की अपेक्षा थी। मैंने किसी स्कूल में रमजान के पवित्र महीने के दौरान अलग से कोई छुट्टी घोषित किया जाना या शुक्रवार की नमाज के लिए कोई अतिरिक्त व्यवस्था नहीं देखी। हिंदू व्रत उपवास के सिवा किसी अवसर पर प्रधानाचार्य के अधिकार से अवकाश घोषित नहीं किया गया।
स्कूलों के तमाम आयोजनों में सरस्वती की प्रतिमा पर दीप जलाए जाते, सरस्वती वंदना गाई जाती।
हिंदू मानते हैं कि सरस्वती विद्या की देवी हैं। अन्य धर्मों में ऐसी कोई मान्यता नहीं है, लेकिन स्कूल के सारे बच्चों और सारे अध्यापकों को उनमें शामिल होना था। कृष्ण जन्माष्टमी पर कई स्कूलों में भी झांकियां सजाई जाती हैं। बच्चों से राधा-कृष्ण का अभिनय कराया जाता है। हमारे देखते-देखते सुबह की सभा में प्रतिज्ञा को दोहराने की परंपरा समाप्त हो गई और गायत्री मंत्र स्कूलों की प्रार्थना सभाओं में शामिल हो गया। विगत वर्षों में शिक्षक प्रशिक्षणों में शिक्षकों से गुरु-मंत्र दोहराने की अनिवार्यता कुछ राज्यों में मैंने देखी।
जिस देश की शिक्षा-व्यवस्था बहुसंख्यकों के धार्मिक प्रतीकों को ढोते-ढोते हांंफ गई हो, वहांं लड़कियों को हिजाब के विरोध से अधिक त्रासद क्या होगा। आज जो लोग शिक्षा संस्थानों में धार्मिक पहनावे को लेकर हुड़दंग कर रहे हैं, यही लोग धीरे-धीरे सारी संवैधानिक मान्यताओं को धता बता कर अपने प्रतीकों को लोगों पर थोपते आ रहे हैं। मैं कितनी ही ऐसी लड़कियों को जानती हूंं जो घर से साड़ी पहन कर निकलती हैं और स्कूल या कालेज में आकर वे स्कूली पोशाक या अन्य सुविधाजनक कपड़े पहनती हैं।
एक अध्यापिका ने तो यह भी बताया कि उसे स्कूटर पर भी घर से घूंंघट डाल कर निकलना होता है। मैं ऐसी किशोर मुसलमान लड़कियों के समूह से मिली, जिन्होंने मौलवी द्वारा लड़कियों के जींस पहनने, मोबाइल के इस्तेमाल और स्कूटी चलाने के फतवे के खिलाफ बगावत कर दी थी। दरअसल, मूल सवाल पहनावे का नहीं, उन्हें पहनने की स्थितियों का है।
लड़कियां क्या पहनेंगी, कैसे रहेंगी यह तय करने का अधिकार किसी उन्मादी भीड़ का तो हरगिज नहीं है। मौजूदा हिजाब के प्रकरण में जो सबसे दुखद दृश्य नारंगी दुपट्टा ओढ़े बालिकाओं का प्रदर्शन था। वे बालिकाएंं खुद अपने ही खिलाफ औजार की तरह इस्तेमाल कर ली गईं और उन्हें अहसास भी नहीं हुआ।
एक तरफ देश भर में विद्यार्थी विश्वविद्यालयों में सामान्य कक्षाओं की बहाली की मांग कर रहे हैं, दूसरी तरफ जहां स्कूल-कालेज खुल रहे हैं, वहांं विद्यार्थियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर माहौल को खराब करने के पीछे यह कौन-सी राजनीति है? रोजगार की मांग करने वाले छात्रों के साथ पुलिस मारपीट करती है, लेकिन धार्मिक नारा लगते हुड़दंगियों को कोई रोक नहीं पाता।
इसे समझने के लिए किसी जटिल विज्ञान की जरूरत नहीं। यह व्यवस्था की नाकामी है और शिक्षा-व्यवस्था को पटरी से उतारने की साजिश है। बेरोजगारी की समस्या से निपटने में नाकाम सरकारें शिक्षा के सारे ढांचे को तहस-नहस कर देना चाहती हैं।