सुरेश सेठ
कल जो हमारे कातिल थे, आज हमारे साथ हुए अपराधों की सजा सुनाने के लिए न्याय का हथौड़ा पीट रहे हैं। उनकी आंखों का रंग बदल गया है। कल तक उनसे खून बरस रहा था, वे रक्तवर्णी हो रही थीं, आज उनसे शांति के पैगाम आ रहे हैं, मानवधर्मी सफेद पताकाएं फहरा रही हैं। शांति कपोतों का मोल बढ़ गया। लोग लिबास बदलने की तरह अपने मूल्य और आदर्श बदल रहे हैं। इंसानों की बस्तियां जलाने वाले लोग अब अग्नि शमन के जाबांज कर्मचारी बन आग पर पानी की बौछार करते नजर आते हैं। यही तो थे जो कल इस जलती हुई आग पर तेल डालने का काम कर रहे थे और इसे अपना पुण्य कर्म बता रहे थे!
अमानवीयता का सैलाब गुजर गया। पीछे घोंघे, पत्थर, कूड़ा-कर्कट ही नहीं छोड़ गया, कुछ सरकटी लाशें भी छोड़ गया। अजब मंजर था वह। अब जब मुखौटा बदलने का वक्त आया तो लोग एक-दूसरे की पीठ थपथपा कर घायलों के जख्मों पर मरहम लगाते देखे जा रहे हैं। दंगों का सैलाब गुजर गया, अब सम्मान पत्र बांटने वाले या अपना अभिनंदन खुद ही करवा लेने वाले सामने आ रहे हैं कि देखो बंधु, हमने दंगों की पीड़ा को अपने बदन पर नहीं, बल्कि अपनी आत्मा पर झेला है। इसीलिए फसाद और खून के उन दिनों में हमने घिरे हुए अभागों की भूख-प्यास की सुध ली। हम उन्हें अपनी पीठ थपथपाते हुए देखते रहे कि उत्पाती दिनों में इन लोगों ने दस रुपए की पानी की बाल्टी बीस रुपए में बेची है। वे मुंह मांगी कीमत प्राप्त कर सकें, इसके लिए यह भी हो सकता है कि उन अशांत दिनों में उन्होंने पानी की आपूर्ति खुद ही बाधित कर दी हो। कारवां गुजर जाने के बाद उसके गुबार को पछाड़ने के लिए जल आपूर्ति से लेकर भूख आपूर्ति तक करते हुए अब समय सारथी बन हर तरह की प्रवंचना से जूझ जाने का संदेश दे रहे हैं।
एक चेहरे पर समयानुसार दूसरा चेहरा लगा लेना और अपनी पीठ खुद ही थपथपा कर अपने आपको क्रांतिवीर घोषित कर देने का यह उद्घोष हम हर क्षेत्र और हर समय में देखते-सुनते आ रहे हैं। इन दिनों इसका रिवाज कुछ अधिक हो गया है, क्योंकि सुना है जो असल हकदार थे वे तो इस पहचान और अभ्यर्थना के मेले में लुट गए और तमाशबीन दुकानें सजा कर बैठ गए, जहां आपके लिए पुरस्कार से लेकर सम्मान पत्र तक सब नीलाम हो रहे हैं।
आधी रात को ‘खून का बदला खून’ चिल्लाने वाले शूरवीर सुबह होते ही सूरजमुखी बन कर शांति का सूरज उगा देने के पैरोकार बन गए, क्योंकि यह बात उनके बड़े-बूढ़े पहले ही बता गए थे कि बरखुरदार ‘गंगा जाओ तो गंगाराम बन जाओ और जमना जाओ तो जमना दास’ बनने की घोषणा कर दो। कालांतर में यह समझ उन्हें दल-बदलू बनने की प्रेरणा देती है।
अपनी टोपी बदल कर वे कभी शार्मिंदा न हुए, बल्कि इसे आत्मावलोकन कह अपनी समझ का नया पड़ाव हमें समझा कर इसे न्याय संगत ठहरा गए। आजकल लोग एक-दूसरे के विरुद्ध कीचड़ उछालते हुए चुनाव लड़ते हैं, बाद में सत्ता पर कब्जा जताने के लिए एक दूसरे के साथ गठजोड़ करते हुए उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती। अलग-अलग दर्शनों से प्रतिबद्धता जताने वाले भी कितनी जल्दी एक न्यूनतम साझे कार्यक्रम पर पहुंच जाते हैं और अपने-अपने हिस्से की विजयमाला बांट करके पहन लेते हैं। इस बीच जिस दंगे-फसाद, चीख-चीत्कार और हिंसक कोलाहल को इन्होंने मौन धारण करके स्वीकार किया था, उसे दृष्टि ओझल करके अब वे एक नए शांति और विकास युग का सूत्रपात करने के लिए निकल आते हैं।
कैसी दौड़ और कैसा मुकाबला? बात तो तब बनेगी जब दौड़ के आयोजक, प्रतिभागी और निर्णायक सब आप खुद हों। फैसला जब आपके हक में हो जाए तो इसे अपने प्रशंसकों की मेहरबानी बताइए। खुदा खैर करे, निर्णय कहीं उलट जाए तो इसे जनता से किया गया ऐसा विश्वासघात बताइए कि जिसका उत्तर जनता खुद देगी। राजनीति हो या साहित्य, कला हो या दुनियावी सफलता इसके पीर, बावर्ची स्वयं ही बन कर अपने लिए विजय प्रसाद खड़े करते जाएं। उम्र दगा दे जाए तो इसकी बागडोर कुछ यों अपने चहेतों को दीजिएगा कि उनके जयघोष में भी आपको अपना ही नाम सुनाई दे। आखिर त्याग और बलिदान का जमाना है।
बदलते मौसम के मिजाज की नब्ज पकड़ने से ही त्याग और बलिदान के शीर्षक उभरते हैं। आज लोगों को शीर्षकों में जीने की आदत हो गई है। कोई भी फुटनोट नहीं बनना चाहता और इसीलिए शीर्षकों का यह संघर्ष ही बदलते मौसम का ऐसा मिजाज बना कि जिसके पीछे आम आदमी के हाथ में सिवाय शून्य के कुछ भी नहीं। अब इसी शून्य को ओढ़ो, पहनो, बिछाओ और बाद में अपनी उपलब्धियों का ब्योरा उन गलत आंकड़ों में परोस दो कि जिसका परिणाम एक ऐसा चमकता हुआ मौसम होता है जो केवल चमकता है, करीब जाओ तो एक भोथरे सत्य में बदल जाता है। यह सत्य जीना ही शायद बदलते मौसम की अनिवार्यता बन गई है।