सरस्वती रमेश
मानसून के दस्तक के साथ ही खेतों में बढ़ जाती है हलचल। क्यारियों के बीच से आने लगती है मधुर गीतों की आवाज। इन गीतों के भाव और उनके बोल में छिपे संदेश खेतिहर महिलाओं को थकने नहीं देते। गाते-गाते कब कई बीघे जमीन पर धान की रोपाई हो जाती है और धानरोपनी स्त्रियों को पता भी नहीं चलता। खेत मे लगे पुरुष इन्हीं गीतों से ताजगी लेकर ऊर्जावान बने रहते हैं। ये गीत एक तरह से तन और मन को जाग्रत रखने का तरीका रहा है। इन गीतों को कागज पर कलम से रचा गया हो या नहीं, मगर ये सदियों से लोक की जुबान से ही अनवरत यात्रा पर हैं। हमारे रिश्तों, घर समाज, परिवार और कृषि को जोड़ने के मजबूत माध्यम बने रहे हैं ये लोकगीत। लोकगीतों में प्रकृति के साथ लोक के संबंध की अद्भुत व्याख्या है। आम महुआ के बागों, लहलहाती फसलों और कलकल बहती नदियों से लोक के संबंध का जैसा लुभावना और स्नेहिल वर्णन इन लोकगीतों में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ जान पड़ता है।

लोकगीतों की सबसे खास बात यह रही है कि ये भारतीय समाज का आईना होने के साथ स्त्री या पुरुष के दुख को बहुत बारीकी से अभिव्यक्त करते हैं। इतनी बारीकी कि कई बार सुनने वाले की आंख में आंसू आ जाए। खेतिहर समुदाय हो, व्यापारी वर्ग या आभिजात्य वर्ग- सबने अपने दुख-सुख को व्यक्त करने के लिए इन गीतों का सहारा लिया है। एक समय जब खेती में आधुनिक यंत्रों की उपस्थिति नहीं के बराबर थी और जोत भी काफी बड़ी होती थी, तब किसानी कर रहे स्त्री-पुरुष गीतों के माध्यम से अपने काम के बोझ को हल्का कर लेते थे। धान की रोपाई से लेकर फसल की कटाई तक हर जगह इस गाने की परंपरा रही है। ये गीत हर मौसम, हर त्योहार और शुभ कार्यों के मौके के लिए मौजूद हैं। जैसे चैत्र के महीने में चैती, सावन के महीने में कजरी, फागुन के महीने में फाग, बच्चे के जन्म पर सोहर, शादी-ब्याह के अवसर पर विवाह गीत।

एक समय था जब हमारे टोला-मोहल्ला की औरतें सुर-ताल और भावों के साथ इन गीतों को गाया करती थीं। बाद में लोकगीतों को गाने में कई महिलाओं और पुरुषों ने महारत हासिल किया। उनके गानों के कैसेट बने, सीडी आई और समय बदलने के साथ यूट्यूब पर लोक गायकों के हजारों चैनल बन चुके हैं। लोक गायन में रुचि रखने वाले लोग बड़े चाव से इन गीतों को देखते-सुनते हैं। लड़कियों की विदाई के मौके के गीत सुन कर मेरी नानी रोने लगती थीं… जोर-जोर से। फिर तो कई लोगों को मिल कर उन्हें चुप कराना पड़ता था। मैंने भी जब-जब सावन में बजने वाले नैहर के गीत सुने, मेरा मन नैहर जाने को छटपटा उठा। जैसे ‘अम्मा मेरी बाबुल को भेजो रे…’ या ‘अब की बरस भेज भैया को बाबुल…’।

लोकगीतों में गाए गए कई परंपराओं को समाज ने सदियों तक निभाया है। फिर चाहे सावन में बेटी को बुलावा भेजने की परंपरा रही हो या त्योहारों पर भैया द्वारा बहन के घर उपहार ले जाने की। शादी के समय ननद द्वारा न्योछावर की मांग हो या दूल्हे के भाई की खातिरदारी का रिवाज। परदेस गए पति का इंतजार करती बिरह में डूबी पत्नी, इन्हीं लोक गीतों को गाकर अपना दर्द हल्का करती हैं। कभी वे अपने पति को उलाहने देती हैं या कभी अपनी जान की दुहाई। ‘रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे, रेलिया बैरन…’। इन लोकगीतों में हमारे परंपराओं को जीवन मिला है। हमने गीत गाते-गाते बड़ों का आदर करना, बुजुर्गों को प्रणाम करना, सूरज के आगे नतमस्तक होना सीख लिया।

ऐसा नहीं है कि लोकगीत सिर्फ आदर्श की बातें करते हैं। इनमें हास्य विनोद, देवर-भाभी के रिश्ते की चुहल और पति-पत्नी के रिश्ते का उतार-चढ़ाव सुनने को मिलता है। जब ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ का पाठ करना निरक्षर लोगों के लिए संभव नहीं था, तब इन्हीं गीतों ने उन्हें हमारे समाज परंपरा के महान नायक और राजाओं से परिचय कराया। उनके जीवन और चरित्र पर हजारों गीत हैं, जो मौखिक रूप से आगे बढ़ते जा रहे हैं। ये गीत न सिर्फ आम जन के मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि उनकी जानकारी का जरिया भी।

विडंबना यह है कि लोकगीतों का सुर अवसान की ओर तेजी से बढ़ता गया है। शहरों में शादी-विवाह से लेकर जन्मदिन और अन्य पर्व-त्योहारों पर बॉलीवुड संगीत बजाने का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। जहां शहरों में लोक गीत गाने को पिछड़ेपन की निशानी समझा जाने लगा है, वहीं गांवों में भी शहरी संस्कृति तेजी से पांव पसार रही है। पारंपरिक कार्य छूटने के बाद शहरों की ओर पलायन ने हमारी परंपराओं को अधिक क्षति पहुंचाई है। अब न हमारे संबंधों में वह बात रही और न हमारे लोगों में लोकगीतों के प्रति वह लगाव। यह सच है कि कुछ देशज गायकों ने लोक गीतों को जीवित रखने का बीड़ा उठाया है, मगर लोकगीत तो लोक की कला है और इसे जीवित रखने का जिम्मा भी हम सबका होना चाहिए।