राकेश सोहम्
देश आजाद हुआ और आजादी को प्रतीक मानते हुए देश में स्वतंत्रता दिवस की नींव पड़ी। तब से हर साल आजादी का यह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। इतिहास गवाह है कि जब हमें आजादी मिली, तब लोगों ने आजादी का मतलब अपने-अपने तरीके से निकाला था। लोगों को लगा कि अब हम कुछ भी कर सकने के लिए स्वतंत्र हैं। कोई रोक-टोक नहीं है। इस क्रम में कई नकारात्मक चलन भी देखने में आए, जब बाहुबलियों ने निर्बलों पर जुल्म ढालने शुरू कर दिए। धनाढ्यों ने निर्धनों को कर्जदार बना कर अपना गुलाम बनाना शुरू कर दिया। देश में विकट स्थितियां निर्मित हो गई थीं। आजादी को समझने-समझाने में काफी समय लगा, बल्कि आज भी ऐसे उदाहरण देखे सुने जाते हैं। असल में स्वतंत्रता के मायने स्वच्छंदता नहीं है।

दरअसल, स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच एक महीन रेखा होती है। आजादी के इतने साल बाद भी लोग स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अंतर को समझ नहीं पाए हैं। स्वतंत्र मानसिकता के लोग कई बार नियम-कानून को ताक पर रख देते हैं। वे इसकी आड़ में अमानवीय हो उठते हैं। न केवल जानवरों पर, बल्कि मनुष्यों के खिलाफ भी बर्बरता की हद तक चले जाते हैं। आए दिन समाज के कमजोर तबकों के खिलाफ दबंग तबकों का अत्याचार और अपराध की घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि हमारे देश में ऐसे तमाम लोग हैं, जिनके लिए स्वतंत्रता महसूस कर पाना अभी बाकी है। सिर्फ इसलिए कि किन्हीं वजहों से वे आर्थिक रूप से कमजोर हैं और उन्हें सामाजिक रूप से कई मानकों पर पीछे रह जाना पड़ा। जबकि उनका हक बराबर था। कौन ले गया उनका हक?

कुछ दिन पहले सुबह अखबार लेकर बैठा तो मन अवसाद और खिन्नता से भर गया। नजरें एक समाचार पर जाकर टिक गईं। भरी बरसात में एक व्यक्ति का मोबाइल कीचड़ से बजबजाते गहरे नाले में गिर गया। उसने पास में खड़े भिखारी को पैसे का लालच देकर मोबाइल ढूंढ़ने को कहा। बेचारा गरीब मोबाइल की तलाश करने लगा और वह व्यक्ति छाता लगाए किनारे खड़ा-खड़ा उसे निर्देश देते हुए इनाम के पैसे बढ़ाता रहा। जब करीब पैंतालीस मिनट के अथक प्रयास के बावजूद मोबाइल नहीं खोजा जा सका तो वह व्यक्ति अपशब्द कहते हुए वहां से निकल गया और बेचारे गरीब को एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी!

अक्सर हमारे आसपास ऐसी घटनाएं देखने-सुनने में आती हैं, जहां लगता है मानो मानव देह से मानवता पलायन कर गई है। अनियमित जीवनशैली के कारण मानवता का बुरी तरह क्षरण हुआ है। केरल में हुई अमानवीय घटना को कौन भूल सकता है, जहां किसी व्यक्ति ने एक गर्भवती हथिनी को अनन्नास में बारूद रख कर खिला दिया था! अनन्नास को चबाते ही बारूद हथिनी के मुंह में फट गया। मुख और जीभ बुरी तरह झुलसने से उसकी मौत हो गई। कुछ दिनों पहले दूध की डेयरी के बारे में एक समाचार पढ़ने में आया। वहां एक मृत बछड़े को गाय के पास लिटा कर दूघ निकाला जा रहा था! वह एक नर बछड़ा था। खबर के मुताबिक दूध डेयरियों में गाय और भैंस के नर बच्चों को दूध से वंचित रखा जाता है, जिसके कारण वे मर जाते हैं। इससे उनके लालन-पालन पर होने वाला खर्च भी बचता है। जानवरों को बहलाने के लिए मृत नर बच्चों की खाल में भूसा भर कर पुतला तैयार कर लिया जाता है और जानवरों को इंजेक्शन देकर दूध दुहा जाता है! आज निर्दयता का वातावरण इतना सघन हो गया है कि वीभत्स अमानवीय व्यवहार करते हुए भी व्यक्ति की रूह नहीं कांपती।

जहां मानवता पलायन होती दिखती है, वहीं कई बार जानवर का समझदारीपूर्ण व्यवहार अचंभित कर जाता है। मैं हर रोज पांच बजे सुबह भ्रमण के लिए निकलता हूं। करीब चार किलोमीटर दूर हनुमान मंदिर तक जाकर लौटता हूं। एक दिन लौटते हुए देखा कि एक व्यक्ति एक कुत्ते को लाठी से पीट रहा था। मैंने इसका विरोध किया और कुत्ते को जाने दिया। जब आगे बढ़ा तो देखा वह कुत्ता मेरे पीछे-पीछे आ रहा है। मैं रुका तो वह भी रुक गया और मेरी आंखों की ओर देखने लगा। फिर थोड़ा इधर-उधर घूमने लगा। मुझे लगा कि वह चला जाएगा। जब लौट कर अपने घर के दरवाजे पर पहुंचा तो देखा वह दौड़ते हुए मेरे पीछे आ खड़ा हुआ और फिर दरवाजा खोलते ही मेरे पैरों के बीच से होता हुआ मेरे घर के भीतर अतिथि कक्ष के कोने में जा बैठा।

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मैं भयमिश्रित आश्चर्य से उसे देखने लगा। वह पूंछ हिलाते हुए मेरी ओर देख रहा था मानो मेरी आत्मीय मानवता और सहानुभूति का धन्यवाद अदा कर रहा हो। हालांकि बाद में वह चला गया और यह सिखा गया कि हम भले ही मानवता भूल गए हों, लेकिन जानवर हमसे श्रेष्ठ हैं। मानवता सर्वश्रेष्ठ है। यह हमारा आधारभूत गुण है। आजादी के इस पावन पर्व पर क्या हमें यह शपथ नहीं लेना चाहिए कि हम मानवता को अंगीकार करते हुए यह मानें कि मानवमात्र एक समान, स्त्री और पुरुष एक समान, जाति-धर्म सब एक समान!