गिरीश पंकज
बचपन में मुझे पतंगबाजी का जबर्दस्त शौक था। वैसे भी बचपन और पतंग का आपस में गहरा संबंध रहा है। आज भी जब आकाश पर पतंग को उड़ते देखता हूं, तो मेरा मन बालसुलभ उत्साह से भर जाता है। अब भले ही पतंग नहीं उड़ा पाता, लेकिन छत पर बैठ कर उड़ती पतंगों को देख कर खयालों की दुनिया में जरूर गुम हो जाता हूं। कई बार आांखें मूंद कर अपने बाल-स्वरूप को देखने की कोशिश करता हूं। एक बच्चे को कटी हुई पतंगों के पीछे भागते देखता हूं… वह बालक अपने बालसखाओं के साथ कागज की पतंग बना रहा होता है… आगे को धारदार बनाने के लिए कांच पीस रहा है, उसे भात से सान रहा है और उसके बाद उसमें लाल, नीले पीले रंग भी मिला रहा है। धागे को एक छोर से दूसरी छोर तक बांधकर उसमें मजबूत मांझे का रूप दे रहा है, ताकि उसकी पतंग कोई न काट सके। सहसा कोई आवाज देता है और आंख खुल जाती है और मैं अपनी पुराना अवस्था में लौट जाता हूं।

वह प्यारा बचपन कहीं लुप्त हो जाता है। फिर आकाश पर तैरती पतंगें देख कर ही मन मगन हो जाता है। उड़ती पतंग अब मुझे मनुष्य के उत्थान और पतन की कथाएं भी लगती हैं। कोई पतंग शीर्ष तक जाती है और घंटों आकाश पर तनी रहती है। कुछ पतंगें दूसरी पतंगों से पेंच लड़ाती हैं और कट कर बहुत दूर चली जाती हैं। यह कटी पतंग मनुष्य के इस सत्य को रूपायित करती हैं कि हमको उड़ने के बाद कटना भी पड़ता है। आकाश पर उड़ने वाली हर पतंग को दूसरी पतंग के साथ पेंच लड़ाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। ऐसी स्थिति में वह कट भी सकती है और दूसरी पतंग को काट भी सकती है। मैं चाहता था कि मेरा इंजीनियर बेटा समय मिलने पर पतंग उड़ाए, लेकिन उसे पतंगबाजी का शौक नहीं रहा कभी। एक बार मैंने बहुत जिद की तो वह बाजार से कुछ पतंगें खरीद लाया। धागे वाली गड़ारी भी साथ ले आया। लेकिन वह पतंग का धागा ठीक से नहीं बांध सका। बड़ी मुश्किल से वह सफल हुआ। किसी तरह पतंग उड़ी और दूसरी पतंग के साथ पेंच भी लड़ी, लेकिन कुछ ही देर बाद कट गई। उसके बाद से तो उसने पतंग उड़ाने से ही तौबा कर ली।

आज भी जब आकाश में उड़ती पतंगों को देखता हूं, तो लगता है कि बचपन जिंदा हो रहा है। जीवन के प्रति उत्साह बना हुआ है। इस महामारी में भी जब घर से बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं, तब शाम को एक-दो घंटे पतंग उड़ा कर भी लोग जीवन का आनंद ले रहे हैं। लोग धरती पर नहीं चल सकते, लेकिन आकाश पर पतंग के सहारे अपनी उड़ान तो भर ही सकते हैं। आज के संक्रमित दौर में पतंग हमें उड़ना भी सिखाती है। हालांकि कटने के बाद वह इस सत्य से भी हमारा सामना कराती है कि आखिर जीवन की भी यही गति होनी है। पतंग की तरह हम उड़ेंगे और कट कर कहीं दूर चले जाएंगे। मैंने महसूस किया है कि जिनकी पतंगें कट जाती हैं, वे कभी निराश नहीं होते। फिर दूसरी पतंग उड़ाते हैं और सामने उड़ रही पतंगों से पेंच भी लड़ाते हैं। यह जिजीविषा की ओर इशारा करती है। व्यक्ति के भीतर जब तक जिजीविषा बाकी है, तभी तक उसका जीवन वास्तव में बचा हुआ है। इसलिए गिर कर फिर उठने और चल पड़ने और पतंगों की भाषा में कहूं तो उड़ जाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

विफल होने के बाद भी सफलता की ललक पतंगबाजी में सीखी जा सकती है। इसलिए अब जबकि मैं पतंग नहीं उड़ा पाता, रंग-बिरंगी उड़ती पतंगों को देख कर ही खुश हो लेता हूं। इसे जीवन-दर्शन से भी जोड़ कर देखता हूं और अपने भीतर के बच्चे को भी जीवंत बनाए रखता हूं। मुझे लगता है कि हम लाख बड़े हो जाएं, लेकिन अगर हमारे भीतर का बचपन बूढ़ा हो गया तो जिंदगी रसहीन और निस्तेज हो जाएगी। इसीलिए तमाम परेशानियों के बीच भी अपने भीतर के बचपन को बूढ़ा नहीं होने देना चाहिए। अपने व्यस्त बच्चों को भी पतंगबाजी जैसे रोमांचकारी खेलों से जोड़े रखना चाहिए। मेरे खयाल से लोग मेरी इस बात की तस्दीक करेंगे कि जब-जब हम पतंग उड़ाते हैं, हम कितने प्रफुल्लित हो जाते हैं। आनंद से भर जाते हैं। जब हमारी पतंग आकाश की ऊंचाइयों को छूने लगती है, तब तो बात ही क्या!

पिछले दिनों एक पतंग कट कर मेरी छत पर आई तो मैं बच्चों की तरह चहक उठा। कोशिश करने लगा कि उस कटी पतंग को अपने धागे से जोड़ कर उड़ाने की कोशिश करूं, लेकिन चाह कर भी उड़ा न सका। हो सकता है यह उम्र का प्रभाव रहा हो। लेकिन वह पतंग मैंने संभाल कर रख ली है। बेटे से आग्रह किया कि तुम्हें फिर पतंग उड़ानी है। बेटे ने मुस्कुरा कर सहमति में सिर हिलाया और कुछ दिन बाद उसने एक बार फिर पतंग उड़ाई। उस दिन फिर मैंने आंखें बंद कर स्मृतियों के स्क्रीन पर अपने बालस्वरूप को पतंगबाजी करते देख कर प्रफुल्लित हो गया।