यों सारी दुनिया की स्त्रियों के प्रंसग और उनसे जुड़ी समस्याएं इस कदर एकरूप हैं कि उनमें एक तरह का बहनापा दर्ज किया जा सकता है। फिर भी, सामाजिक और आर्थिक आधार पर अगर वर्गीकृत करके देखें तो विदेश, देश और स्थानीय युवतियों के जीवन में अंतर काफी घना है। इसके पीछे कारण यह है कि आर्थिक समृद्धि भी कई बार स्त्रियों की कई परेशानियों को आसान कर देती है। पर कई बार मेरी यह सोच गलत साबित होती दिखती है। तब ऐसा लगता है कि शायद धनाढ्य वर्ग और गरीब तबकों की लड़कियों की समस्याओं में कुछ खास अंतर नहीं होता। इसी आधार पर अपनी पहचान की तीन लड़कियों को अलग नहीं कर पा रही हूं। पिछले कुछ समय से न जाने क्यों तीनों के चेहरे एक साथ मेरे सामने घूम रहे हैं।

तीनों के सामाजिक और आर्थिक परिवेश में जमीन-आसमान का अंतर है। चौबीस साल की आरती हरियाणा के हिसार में एक वाल्मीकि बस्ती में रहती है। उसे बारहवीं पास किए पांच साल हो चुके हैं। तीव्र इच्छा के बावजूद आगे की पढ़ाई करना उसके लिए सपना भर रह गया है। दुख से भर कर अक्सर आरती कहती है- ‘दीदी, हर साल मैं कॉलेज में प्रवेश के लिए फॉर्म भरने के लिए मां को राजी कर लेती हूं, पर भाई मना कर देता है। लंबे-लंबे दिन नहीं कटते। घर का काम करने के बाद जीभर कर सो लेती हूं, पर खूब सारा समय फिर भी बच जाता है। घर में ही थोड़ा-बहुत सिलाई कर अपने खर्च लायक कुछ कमा लेती हूं।’ वह सिर्फ दिवाली के दिन ही थोड़ा-बहुत खरीदारी के लिए बाहर निकलती है, वरना पचास गज की चारदिवारी वाला घर उसकी सीमित दुनिया है।

दूसरी लड़की सुनीता कुछ समय पहले तक मेरे साथ दिल्ली के पेइंग गेस्ट हॉस्टल में रह कर एक कोर्स कर रही थी। अब बीते दो साल से अपने दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई और ढेर सारे चचेरे-फुफेरे बहन-भाइयों के साथ रहती है। पिछले दिनों उसका फोन आया तो उसने बड़ी मायूस-सी आवाज में कहा- ‘दीदी, मैं क्या करूं! घर में ऊब जाती हूं। घर वाले मेरे लिए कोई व्यवसायी परिवार का लड़का तलाश कर रहे हैं। तब तक मुझे सिर्फ इंतजार करना होगा। मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, लेकिन घर वालों ने उसके लिए साफ मना कर दिया है। घर में ढेर सारे लोग हैं, फिर भी मन नहीं लगता।

घर-परिवार में किसी का जन्मदिन या सालगिरह हो, तभी थोड़ा वक्त ठीक से कटता है। अगले महीने छोटी चाची की सालगिरह है। एक छोटा-सा समारोह होगा। हम सभी लड़कियां उसी की तैयारी में व्यस्त हैं।’ छह महीने पहले आया उसका फोन आज तक मुझे परेशान करता है। धनाढ्य व्यापारी परिवार की खूबसूरत और शिक्षित लड़की सुनीता को उसके परिवार ने उसकी इच्छा के पंख नहीं दिए। उसे अपने जीवन का पहला हिस्सा मायके वालों, फिर ससुराल वालों की इच्छा के मुताबिक ही रहना होगा, जैसे बाकी की आधी दुनिया रहती आई है।

तीसरा और दुखद किस्सा सुनंदा का है। सुनंदा, मेरे संपर्क में आई सबसे जीवंत और खुशमिजाज युवती थी। पिछले दिनों ‘मॉडल की आत्महत्या’ शीर्षक से वह टेलीविजन और अखबार की सुर्खियों में थी। अपनी इस सहपाठी की आत्महत्या की खबर सुन कर मैं हतप्रभ थी। वह बेहद हिम्मती और जिंदादिल लड़की थी। उसके बारे में मेरा यह खयाल था कि वह अपने जीवन से जुड़े सभी फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है। अपनी आर्थिक और पारिवारिक स्थितियों के चलते जीवन की तमाम सुख-सुविधाओं का आनंद उठाने वाली इस लड़की को देख अच्छा महसूस होता था। पर महज पच्चीस साल की उम्र में आत्महत्या को बाध्य होने की स्थितियों के कारण मेरे सोचने की दिशा बदल गई। जर्मनी मे स्नातक करने के बाद वह दिल्ली में मेरे साथ कुछ समय तक रेडियो अकादमी, हौज खास में प्रशिक्षण ले रही थी।

पिछले कुछ सालों से एक अंग्रेजी अखबार की पार्टियों पर आधारित ‘पेज थ्री’ पर अक्सर उसकी भी तस्वीर देखने को मिल जाती थी। पिछले साल ही उसने एक तलाकशुदा व्यक्ति से प्रेम और फिर विवाह किया। लेकिन महज चार-पांच महीने में ही आत्महत्या कर ली। पता चला कि उसका पति उसके आजाद व्यवहार से खिन्न था और उसकी पिटाई भी करता था। इसके बाद वह अपने मायके चली गई और फिर पति और उसके परिवार वालों के मनाने पर वापस आ गई। फिर कभी और कहीं नहीं लौटी। शायद उसे भी अपने परिवार की सामाजिक स्थिति के खराब होने की चिंता होगी।

लड़कियां अपनी सामाजिक स्थितियों के कारण हमेशा एक तरह के मानसिक दबाव में रहती हैं। आरती, सुनीता और सुनंदा, एक जगह पर आकर समाज का अनुसरण करने लगती हैं। अपने मन को पीछे छोड़ देती हैं। आज इक्कीसवीं सदी में स्त्री सशक्तीकरण के तमाम उजले नारों के बावजूद स्त्री के जीवन का सच यही है।

(विपिन चौधरी)