ईस्ट इंडिया कंपनी की लाल वर्दी पहने सिपाहियों ने लाल किले पर कब्जा जमा कर चरमराती मुगलिया सल्तनत का तख्तो-ताज तो छीन लिया, लेकिन बिना मिर्च-मसाले का फीका रोस्टबीफ और बेस्वाद लगती यॉर्कशायर पुडिंग दिल्ली वालों की जुबान पर नहीं चढ़ सके। बादशाह की हैसियत कैदी की हो गई, लेकिन सोने-चांदी के वर्क ओढ़े, गर्म मसाले, जाफरान और केवडा की खुशबू से गमकते मोगलाई व्यंजन की हैसियत में कोई फर्क नहीं पड़ा। यहां इसे क्विजीन कहने का ही मन कर रहा है! अवध से आए एक प्रतिद्वंद्वी ने जरूर कोशिश की उसका रुतबा कम करने की, लेकिन नवाब वाजिद अली शाह के दरबार से अशर्फी की बघार में संवर कर आने के बावजूद अवधी क्विजीन दिल्ली वालों के दिल से मोगलाई क्विजीन को रुखसत नहीं कर पाई। फिर जैसे तैमूरलंग और नादिर शाह केंद्रीय एशिया से आकर धावे मारते आए थे, वैसे ही दिल्ली के बावर्चीखानों पर पश्चिमोत्तर में हिमालय के दर्रों से उतर कर तंदूरी क्विजीन धावा मारने लगी।
हालांकि अपरिचित वह तब भी नहीं थी। अंग्रेज देश के टुकड़े करके चले गए तो स्वजन-सी लगती मोगलाई क्विजीन के संग रहने के लिए पेशावर के मोतीमहल रेस्टारेंट को मय तंदूरी चिकेन को लाखों अन्य पंजाबी विस्थापितों के साथ भारत आना पड़ा। दरियागंज के मोतीमहल रेस्टारेंट से पंडित जवाहर लाल की खाने की मेज पर पहुंच कर तंदूरी चिकेन मशहूर हो गया। इतना कि 1962 में रोम से मुंबई की उड़ान में जैकेलीन केनेडी भी उसकी फरमाइश कर बैठीं। तंदूरी चिकेन की बरात में शहबाला बन कर छोटा भाई चिकेन टिक्का मसाला भी आया।उधर शाकाहारियों को तृप्ति देने वाले पंजाबी व्यंजन भी दिल्ली वालों की जुबान पर चढ़ गए। चिकेन से सस्ता पड़ने के बूते पर ही नहीं, बल्कि अपने चटपटे स्वाद के दम पर छोला-भटूरा, चना और अमृतसरी कुलचा भी दिल्ली में आकर बस गए। मगर पांच सितारा होटलों को आबाद करने वाले अभिजात वर्ग ने इन्हें तंदूरी चिकेन और टिक्का मसाला जैसी तरजीह नहीं दी। वजह शायद यह थी कि तंदूरी चिकेन और टिक्का तो नफासत के साथ पांच सितारा होटलों में सिंगल माल्ट व्हिस्की के साथ चलते थे, लेकिन छोले-भटूरे के साथ सिंगल माल्ट का क्या जोड़! उधर तंदूरी चिकेन सिंगल माल्ट के साथ ही नहीं, ढाबे के बाहर बिछे ‘मंझे’ पर संतरे, आसा और देसी के साथ भी संगत करने लगा।
आगे चल कर दिल्ली को तिब्बती आगंतुकों ने मोमो के मोहजाल में भी बांधा। मोमो बड़ा चतुर निकला। बहुरूपिए की मानिंद सामिष और निरामिष दोनों शक्लें बना लेने में माहिर। फिर मोमो के अंदर जिसे मौका मिला घुस लिया- चिकेन हो या नूडल या घासपात। बात तिब्बत तक आ पहुंची तो चीन कौन दूर था! फिर तो नूडल और चाऊमिन भी मैक्महोन रेखा लांघ कर आए और टिक गए। बहुरंगी चाइनीज क्विजीन तो बड़े होटलों तक सीमित रही, लेकिन नूडल और चाऊमीन रेस्तराओं से लेकर सर्वहारा वर्ग की पसंद बन कर गलियों और साप्ताहिक हाटों तक जा पहुंचे। इनके बीच मैगी नूडल्स का जिक्र क्या करें। बात दिल्ली की गलियों और सड़कों के स्ट्रीट फूड की है, मैगी नूडल का क्या, वह तो घर-घर में घुसी हुई है। बाहर से आकर दिल्ली की दावतों में शामिल होने के लिए, विशेषकर जहां शाकाहारी भोजन पर जोर हो, राजस्थान के दाल-बाटी चूरमा ने भी कम मेहनत नहीं की। शादियों में खाने का कॉन्ट्रैक्ट लेने वाले खूब जानते हैं कि व्यंजन भले चौंसठ तरह के हों, आदमी पेट भर ही तो खाएगा। कई लोग तो अक्सर चाट, पापड़ी, आलू टिक्की, दही भल्ले से ही पेट भर लेते हैं। फिर दाल-बाटी-चूरमा जैसा सस्ता और टिकाऊ माल मेनू से बाहर क्यों रहे। हालांकि सादगी की चादर ओढ़ कर आई दाल-बाटी देशी घी में नहा कर और चूरमा इलायची, बादाम के साथ नक्शेबाजी करके महंगे बन जाते हैं। राजस्थानी दाल-बाटी का पंजाबी जवाब है ‘मक्की दी (की) रोटी’ और ‘सरसों दा (का) साग’। साग में उड़ेले गए मक्खन और घी की मात्रा बता देती है कि वह महंगे होटल का है या ढाबे का। लेकिन दाल-बाटी और सरसों का साग-मक्की की रोटी, रोजमर्रा के खाने की हैसियत से ठेलों पर कम ही दिखते हैं।
हाल के वर्षों में पूरब से आकर दिल्ली की संस्कृति में जैसे छठ का पर्व जुड़ते दिखा है, वैसे ही बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सर्वहारा वर्ग के साथ आकर पुरबिया रसोई का स्वाद दिल्ली की जुबान तक पहुंचा रही है लिट्टी-चोखे की जोड़ी। लिट्टी, भौंरी या बाटी के अंदर सतुआ या चने का आटा न हो और चोखा कहे जाने वाले आलू या बैंगन के भरते में कच्चे लहसुन और सरसों के तेल की तुर्शी न मिले तो उसे नकली समझिए। लिट्टी-चोखे की बबली-बंटी नुमा जोड़ी अभी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के नोयडा, ग्रेटर नोयडा, गाजियाबाद और पूर्वी दिल्ली से पूरी दिल्ली की तरफ अभी सिर्फ झांकती-सी लगती है। शायद जल्दी ही यह जोड़ी दिल्ली को घेरती तंदूरी चिकेन की दीवार में सेंध लगा कर पूरी तरह घुस लेगी और दिल्ली-करनाल-अंबाला तक के मशहूर ढाबों पर कब्जा कर लेगी।