पराई पीड़ा का अहसास संवेदनशीलता की चादर में लिपट कर साहित्यकार के सिर पर एक बोझ की तरह इकट्ठा होता जाता है जो आखिरकार लेखनी के सहारे कागज पर उतर आने के लिए बाध्य हो जाता है। पीड़ा पराई हो यह जरूरी नहीं। जिस पहले कवि की वियोगजन्य आह से गान उपजा था, जिसकी आंखों से आंसुओं की तरह उमड़ कर कविता अनजाने में चुपचाप बह निकली थी (सुमित्रानंदन पंत), वह दूसरों की वेदना को मुखर नहीं कर रहा था। उसकी वेदना उसके अंतर से, उसकी अनुभूति से जन्मी थी।
पराई हो या अपनी, वेदना की अनुभूति का कविता के रूप में ढलना जरूरी नहीं। साहित्यिक वांग्मय में कोमल भावनाओं के निरूपण में गद्य की सार्थकता अब स्वयंसिद्ध है। कई बार तो गद्य इतने ललित और सुकुमार रूप में प्रकट होता है कि कविता और गद्य मिल कर एक अलग तरह का भ्रम उपन्न करते हैं। आतंरिक हो या बाह्य, दोनों तरह की वेदना साहित्य को जन्म देती आई है।
दूसरी ओर, जीवन का आनंद उठाता या जीता सुखी इंसान साहित्य के वांग्मय में भूले-भटके ही आता है और वह भी आमतौर पर पाठक के रूप में, न कि अपनी रचनात्मकता के प्रदर्शन के लिए। भौतिक या आध्यात्मिक आनंद में पगे क्षणों को साहित्यिक अभिव्यक्ति के ऊपर न्योछावर करने वाले बिरले ही होते हैं, जबकि पराई पीड़ा का अनुभव करके काव्य की सृष्टि करने की परंपरा उतनी पुरानी है, जितनी मिथुनरत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक का व्याध के बाण का शिकार बनते देख कर आदिकवि के द्रवित हो जाने की घटना।
इन दिनों कई लेखकों का एक नए अनुभव से सामना हो रहा है। अपने और पराए, सौ तरह के दुख मुंह बाए सामने खड़े रहते हैं, लेकिन लेखनी चुपचाप तमाशा देखती रहती है। आनंद के क्षण आते हैं तो किसी मूक के गुड़ की तरह मन उन्हें भी चुपचाप चुभला लेता है। लेखनी पूरी तरह ‘सुखे-दुखे समे कृत्वा’ का मंत्र जपती हुई स्थितप्रज्ञ रह जाती है। भावनाओं को शब्दों में बांधना एक नीरस खेल लगता है। इस बीमारी को लेखकों के मानसिक अवरोध (अंग्रेजी में रायटर्स मेंटल ब्लॉक) की संज्ञा दी गई है।
इसका मुख्य लक्षण है रचनात्मकता का सूखते जाना और अभिव्यक्ति में किसी भौतिक बाधा के बिना भी लेखन के लिए नए विचारों का अकाल। ऐसे लक्षणों के कारण लेखक के निजी जीवन में छिपे होते हैं। आजीविका से जुड़ी हुई गंभीर आर्थिक कठिनाइयां, लंबे समय तक चलने वाली या असाध्य बीमारियां, स्वाभिमान को चुनौती देने वाली घटनाएं, निजी रिश्तों में अचानक आ गई खटास, ऐसे किसी भी कारण से साधारण इंसान अवसाद रोग जैसी मानसिक व्याधि से ग्रस्त हो सकता है।
मानसिक रोगों की श्रेणी में लेखकीय अवरोध आता तो है, लेकिन यह व्याधि स्थायी नहीं होती। उपचार के लिए मानसिक रोगों के डॉक्टर के पास जाना भी जरूरी नहीं। खुद अपने लेखकीय अवरोध की शिनाख्त कोई लेखक जितनी गहराई से कर सकता है, उतनी गहराई में उतरना दूसरों के लिए दुष्कर होगा। मानसिक अवसाद बढाने वाले कारणों की पहचान हो जाए तो इच्छाशक्ति का सहारा लेकर लेखकीय अवरोध पर भी काबू पाया जा सकता है। फिर तो छोटे-छोटे टोटके, जैसे लिखने की जगह और समय बदल देना भी काम आ जाते हैं। लेखकीय अवरोध को मस्तिष्क के बाएं पिंड और तंत्रिका तंत्र (न्यूरो सिस्टम) के असामंजस्य से जोड़ कर उसे बहुत बीहड़ शरीरशास्त्रीय अध्ययन में घसीट ले जाना भी संभव है लेकिन उसमे न तो मेरी क्षमता है न रुचि, इसलिए वापस लौटता हूं सामान्य लेखकीय अवरोध की छान-फटक पर।
अधिकांश लेखकों के जीवन में पिछले एक वर्ष में महामारी से पैदा हालात में जो परिवर्तन आए, उनका लेखन से कोई संबंध नहीं। बाहर घूमना बंद हो जाने पर भी संचार साधनों की कृपा से रचनाशीलों का अपनों से बराबर संपर्क बना रहा। इस दौर में लिखने-पढ़ने पर सबसे गहन असर डालने वाला तत्त्व बस यह दिखा कि सोशल मीडिया पर लाखों लेखक प्रकट हो गए। अब हर कोई फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और वाट्सऐप के सहारे अपनी रचनाशीलता का प्रदर्शन करने में व्यस्त है।
गद्य और पद्य दोनों ही रूप में तुरंता साहित्य की अगणित, अविरल धाराओं से आभासी संसार में भयंकर सुनामी आई हुई है। लगता है हर व्यक्ति महामारी से अकाल मृत्यु की आशंका से डर कर अपनी साहित्यिक और रचनात्मक प्रतिभा का स्थायी प्रमाण आभासी संसार में छोड़ जाना चाहता है, जैसे प्राचीन काल में राजे-महाराजे अपने प्रशस्ति पत्र शिलाखंडों पर खुदवा देते थे। लेखन की इस सुनामी की लहरों में जबर्दस्त विस्तार है, लेकिन गहराई नहीं। इस आत्मरतिग्रस्त सुनामी में पाठक की जरूरत किसको? फिर हर्ज क्या है अगर इस बाढ़ का नजारा देखने के लिए कोई लेखक ऊंचाई पर बने एक झरोखे पर बैठ जाए और आत्मसंयम का कवच ओढ़ कर खुद को इस बाढ़ में बह जाने से रोक सके। और तरह की पूर्णबंदी बुरी होती होगी, पर लेखन के मामले में शायद यह बुरी चीज नहीं!