आप पूरी दुनिया में कहीं भी कुछ खा लें, आपको उस भोजन में वह लगाव और स्वाद नहीं महसूस होगा, जो मां के हाथों बने खाने में होता है। यही नहीं, लोग अक्सर कहते मिल जाएंगे कि मेरी मां तो कपड़ा भी इतना साफ धोती हैं, मानो बिल्कुल नया हो गया। वे घर तो इतने करीने से सजा कर रखतीं हैं कि पूछो मत। ऐसी बातें सुन कर लगता है कि इस दुनिया में मां से प्रेम करने वाले लोग भरे पड़े हैं। लेकिन भावनात्मक धरातल से थोड़ा ऊपर उठ कर अगर जरा गहराई से ऐसी बातों के सामाजिक आयाम को समझने की कोशिश करें तो इसके कई पहलू उभर कर आते हैं।
इन्हीं बातों को सोचते हुए मेरे मन में यह सवाल अक्सर उठता है कि अगर दुनिया में सबसे स्वादिष्ट खाना स्त्री ही बनाती है, तो अधिकतर होटलों और रेस्तरां में काम करने वाले रसोइए पुरुष क्यों होते हैं? जो स्त्री घर में स्वादिष्ट भोजन बना सकती है, क्या वह अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में अच्छा भोजन नहीं बना सकती है? फिर जब कोई स्त्री मां के रूप में बिना किसी प्रशिक्षण के स्वादिष्ट भोजन तैयार कर देती है, तो फिर यह कैसे नहीं माना जाए कि प्रशिक्षण हासिल करने के बाद वह और भी अच्छा भोजन बना सकती है? इस हिसाब से तो हर रेस्तरां और खान-पान वाले होटलों में महिलाओं को ही शेफ होना चाहिए, ताकि स्वादिष्ट भोजन सबको मिलता रहे। लेकिन ऐसा नहीं होता है। बल्कि घर में सामान्यतया खाना न बनाने वाला पुरुष ही आमतौर पर होटलों में खाना बना रहा होता है। चाहे वह कोई छोटा ढाबा हो या पांच सितारा होटल। ऐसा क्यों है? सिर्फ जगह बदल जाने पर भूमिका में इतना बड़ा अंतर क्यों?
इसका उत्तर खोजना बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन उसके पहले इस सतही तर्क को भी समझ लेना आवश्यक होगा कि मां से बेहद प्रेम होने के कारण हम ऐसा कहते हैं। यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि जिसे हम मां कहते हैं वह भी एक स्त्री ही है। मां के साथ-साथ वह अन्य कई भूमिकाओं में भी रहती है। खैर, अगर वास्तव में प्रेम ही इसका एकमात्र कारण है, तो इस प्रेम से पिता यानी पुरुष महरूम क्यों रहा? यह तो बड़ा अन्याय है कि सारा प्रेम उनके खाते में चला जा रहा है और पुरुष उस प्रेम का आनंद नहीं ले पा रहा है! दिलचस्प बात यह भी है कि पुरुषों ने कभी ऐसी मांग नहीं की कि वह भी होटलों के बजाय घर में अच्छा खाना सबको बना कर खिलाए और इस तरह उस महानता की ऊंचाई हासिल करने की कोशिश करे जो अभी ‘मां’ के हिस्से में है। जाहिर है, इसके मूल में कुछ और है।
दरअसल, यह प्रेम यों ही नहीं उमड़ता है। सुनने में थोड़ा कठोर जरूर लगता हो, लेकिन सच्चाई यही है कि इस प्रेम के बहाने हमने आधी आबादी की लगभग पूरी श्रमशक्ति पर कब्जा कर रखा है। पुरुषों द्वारा आर्थिक साधनों पर आधिपत्य जमा कर रखने की यह पुरुष प्रधान समाज की विशेषता ही है कि जगह बदल जाने से भूमिका भी बदल जाती है। वर्तमान युग में यह लगभग स्वीकार्य मान्यता है कि परिवार या समाज में नियंत्रण स्थापित करने के लिए आर्थिक साधनों पर नियंत्रण होना आवश्यक है। यही वजह है कि व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में महिलाओं की भागीदारी लगभग नगण्य है, जबकि हम घर में उसी प्रतिभा प्रदर्शन के लिए महिलाओं की प्रशंसा करते हैं। फिर केवल इसी क्षेत्र में नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र में आधी आबादी की भागीदारी अपेक्षया काफी कम है। यह जान कर आश्चर्य होता है कि प्राथमिक स्तर के शिक्षकों में जहां पुरुष के मुकाबले महिलाओं का अनुपात ठीक-ठाक रहता है, वह उच्च शिक्षा में आते-आते गिर क्यों जाता है? फिर सिनेमा से लेकर खेल तक में महिलाओं को बराबर नहीं समझा जाता है। यहां तक कि इन्हें समान कार्य के लिए समान वेतन तक नहीं मिलता है। किसी भी फिल्म निर्माण में अभिनेता और अभिनेत्रियों को मिलने वाले पारिश्रमिक में अंतर इसका ज्वलंत उदाहरण है।
कहने का मतलब बस इतना है कि हम दूसरों के हक का खयाल रखना जरूरी नहीं समझ रहे हैंं या फिर हक मार रहे हैं। हमें यह समझने की जरूरत है कि आधी आबादी की भागीदारी के बिना देश का आधा-अधूरा विकास ही होगा। फिर आगे बढ़ने का हक धर्म, जाति, लिंग से निरपेक्ष होकर सबको समान रूप से है। इसलिए सबको आगे बढ़ने देने की जरूरत है।