अपने आसपास अगर हमें सबसे ज्यादा किसी चीज की जरूरत होती है, तो वह है साफ-सफाई। लेकिन इसके लिए गंदगी न फैलने देना या उसे साफ करना पहली शर्त है। सच यह है कि आज सबसे ज्यादा हमारे समाज पर गंदगी ने ही कब्जा कर रखा है। कहीं भी चले जाएं, हमें कुछ और देखने को मिले, न मिले, चारों ओर ‘सहज उपलब्ध’ कचरे के ढेर देखने को मिल ही जाएंगे। उनकी शक्ल अलग-अलग हो सकती है। हमारे देश में जोर-शोर की घोषणा के साथ इस गंदगी का ही सामना करने के मकसद से ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू किया गया। शुरुआती दौर में बड़े और नामी-गिरामी लोगों ने बढ़-चढ़ कर इस सफाई अभियान में हिस्सा लिया। हालांकि कई लोगों ने सिर्फ एक या दो दिन इस अभियान में सफाई करते हुए अपनी तस्वीरें खिंचवार्इं और उस ‘गंदगी’ वाली जगह को साफ किया जो पहले से ही साफ थी। कुछ लोगों ने महज पेड़ों से गिरी पत्तियां साफ कीं और कुछ सड़कों पर झाड़ू लगाते दिखे। इससे गंदगी साफ हुई या नहीं हुई, यह तो पता नहीं चल सका, लेकिन वे अभियान का हिस्सा बने दिखे और मीडिया में झाड़ू-सहित तस्वीरें आने के बाद कई तो चेहरा भी बन गए। पर क्या इतने से हमारे देश में साफ-सफाई सुनिश्चित हो जाएगी?
सच यह है कि गंदगी साफ करने में हमारे देश के गरीब और सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के मजदूरों को लगाया गया है, पर उन्हें हमारा समाज सम्मान की नजर से नहीं देखता है। बल्कि कई लोग तो उन्हें ऐसे देखते हैं, मानो हमारी फैलाई गई गंदगी साफ करके भी वे सामने दिखने का कोई अपराध कर रहे हैं! जबकि दुनिया के विकसित देशों में साफ-सफाई सहित तमाम शारीरिक मेहनत वाले कामों को बहुत सम्मान प्राप्त है और उसके लिए पारिश्रमिक भी सम्मानजनक है। हमारे यहां देश के बड़े नेताओं की ओर से भी ऐसे साफ संदेश आए कि अगर हम अपने आसपास की गंदगी को खुद साफ कर लेंगे तो हमारे देश में गंदगी फैलेगी ही नहीं। मगर इससे भी ज्यादा यह जरूरी है कि अगर हम गंदगी फैलाएं ही नहीं तो हमें साफ करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। पर इतनी छोटी-सी बात समझना हम जरूरी नहीं समझते। लोगों को हम उपदेश या शिक्षा देते रहते हैं, पर जब हमारी बारी आती है तो हम भी वही करने में शामिल हो जाते हैं। कोई भी चीज राह चलते कूड़ेदान की जगह सड़कों पर फेंक कर जहां हमें शर्मिंदा होना चाहिए, लेकिन ऐसा करते हुए हमारे भीतर एक अजीब श्रेष्ठता का भाव पैदा होता है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि किसी व्यक्ति-विशेष के सफाई करने से वह जगह तो साफ हो सकती है, पर हमारा देश नहीं।
कुछ समय पहले दिल्ली में यमुना किनारे श्रीश्री रविशंकर ने विश्व सांस्कृतिक महोत्सव का भव्य आयोजन किया। इसे देखने और इसमें शामिल होने में लोगों को बड़ा आनंद आया। लेकिन इसका नुकसान यमुना को जिस पैमाने पर हुआ, उसकी भरपाई क्या इतनी आसान है? यह सबको दिखा कि इसमें बहुत पढ़े-लिखे सभ्य दिखने वाले धनी लोगों ने जितनी तल्लीनता से आयोजन का आनंद उठाया, उतनी ही निर्दयता से यमुना के आसपास गंदगी फैला दी। इसकी जिम्मेदारी किसकी है! क्या इस जगह पर ऐसा आयोजन करने वालों के साथ-साथ आम नागरिकों को यह सब करते हुए शर्मिंदगी नहीं महसूस हुई? ऐसी स्थिति में हम कैसे एक स्वच्छ भारत की कल्पना कर सकते हैं, जब हम खुद अपने देश को स्वच्छ बनाने में भागीदार नहीं होना चाहते? कहीं भी गंदगी नजर आते ही लोग सबसे पहले सरकार और प्रशासन को ही जिम्मेदार बता देते हैं। लेकिन क्या वह कचरा सरकार फैलाती है? यह सही है कि साफ-सफाई के लिए सरकार के पास एक महकमा है। लेकिन फैलाई गई गंदगी के लिए हम सरकार को जिम्मेदार कैसे ठहरा सकते हैं? चारों तरफ अपने फैलाए गए कचरे के लिए हमें सारा कसूर दूसरों के माथे ही मढ़ना क्यों आसान लगता है?
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि जब तक हम खुद अपने देश को अपना नहीं समझेंगे, तब तक हमारा भारत भी गंदगी से मुक्त नहीं होगा। अगर सरकार ने स्वच्छ भारत की नींव रखी है तो हमें उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन सिर्फ लोगों को दिखाने के या फिर मीडिया और अखबारों में अपनी तस्वीरें छपाने के लिए नहीं, बल्कि सही मायने में अपने देश को हर पल, हर दिन साफ रखने के लिए। जिस तरह हम अपने घर को साफ रखते हैं कि हमें यहां रहना है, उसी तरह अपने देश को भी साफ रखने की जरूरत है। तभी हम सही मायने में एक स्वच्छ भारत की कल्पना कर सकते हैं और गांधीजी के सपने को साकार कर सकते हैं।