लोकेंद्रसिंह कोट

कितने सिमट गए हैं हम कि प्रेम पर आख्यान करना पड़ता है, पे्रम को समझाना पड़ता है, आप ही प्रेम हो, यह बताना पड़ता है। जीवन चलाने के लिए कई बातें आवश्यक हैं, पर उसके चलायमान पहियों में अगर प्रेम की चिकनाई नहीं होगी, तो सहजता नहीं, बनावटीपन हावी हो जाएगा। सब कुछ चल रहा है का आभास करवाया जाएगा, पर इस चलने और और प्रेम की चिकनाई के साथ चलने में जमीन आसमान का फर्क है। आपसी रगड़ खाते रिश्तों में प्रेम की चिकनाई एक अनिवार्यता है, वरना रूखे और नीरस संबंध हमें जीने भी नहीं देते हैं। उनमें से रिस-रिस कर तनाव बहता रहता है।

प्रेम के रूप भी उतने ही हैं, जितनी हमारी भावनाएं हैं। जहां प्रेम में मांग उठी वह प्रेम, प्रेम ही नहीं रह जाता है। मैं तुझसे प्रेम करता हूं क्योंकि तू सुंदर है, मैं तुझसे प्रेम करता हूं क्योंकि तूने मेरा काम किया, मैं तुझसे प्रेम करता हूं, क्योंकि तूने मुझे संभाला, मैं तुझसे प्रेम करता हूं, क्योंकि तू मुसीबत में मेरे काम आया…। इसमें प्रेम नहीं, व्यापार की अनुगूंज सुनाई देती है। जहां व्यापार है वहां सुख और दुख का मेला लगेगा ही। असल प्रेम रोग तो तब शुरू होता है कि मुझे तुमसे प्रेम है इसलिए तुम मुझे भी प्रेम करो। ऐसा प्रेम हमारे अंदर प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या को जन्म देता है। इसकी जगह अगर आत्मीयता से हम जुड़े हैं तो यही प्रेम हमारे अंदर निखार लाता है।

अगर आप यह कहते हैं कि आप ईश्वर से प्रेम करते हैं, क्योंकि वह महान है। लेकिन किसी पल आपको पता चले कि ईश्वर एक साधारण इंसान है, तो आपके प्रेम का क्या होगा? आपका प्रेम खत्म हो जाएगा। इसी जगह पर अगर आप ईश्वर से इसलिए प्रेम करते हैं, क्योंकि वह आपका अपना है तो आपका प्रेम बगैर शर्तों का है, इसलिए वह जैसा भी हो आपके लिए प्रेम ही रहेगा।

यह अपनेपन से उपजा प्रेम स्वयं से प्रेम करने के समान है और स्वयं से हम कभी नफरत नहीं कर सकते हैं। प्रेम अगर व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति से आजाद है और सिर्फ अपनेपन का भाव लिए है तो वह प्रेम चिरस्थाई या निष्काम प्रेम है। इस संसार की मांएं ऐसा ही प्रेम करती हैं। प्रेम सबसे पहले हमारे अस्तित्व के लिए भी चुनौती है, क्योंकि हम अपना मैं खोकर ही हम हो सकते हैं, प्रेम हो सकते हैं। कभी आपने देखा होगा जब आप ध्यानस्थ हुए होंगे तो एक पल के लिए आप विचार शून्य हो गए होंगे। अंदर से बिल्कुल खाली, सब कुछ मौन।

ऐसे पल में जब आप कुछ नहीं होते हैं तभी आपके अंदर से उभरता है सच्चा प्रेम। एक बच्चे को देखिए, वह कितना खाली होता है, पल में रत्ती और पल में माशा, जीवन यही सब खेल तमाशा। वह रोता भी है तो दिल खोल कर, हंसता भी है तो दिल खोल कर, खाना-पीना, गुस्सा होना सब कुछ, लेकिन अगले ही पल वह सब कुछ भूल कर खाली हो जाता है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

बकौल शायर, ‘ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे/ एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है।’ लगता कुछ विरोधाभासी है, पर देखा जाए, तो आग के दरिया में डूबने और अंदर के अहं को भस्म कर जो कुछ बचेगा वह खालिस होगा, पवित्र होगा, प्रेम होगा। आप जब सब कुछ खो देते हैं और एक आशा जगने लगती है कि अब कुछ मिलेगा, तो उसे भी फिर से भस्म करना होता है।

जब आप आप नहीं रहते और सामने वाला बन जाते हैं, मैं ही तू बना जाता है, तब बात बनती है। रांझा-रांझा करदी वे मैं आपे रांझा होई। बस फिर रांझा ही बचता है, हीर बचती ही नहीं है। गोपियों ने भी कृष्ण में खुद को विलीन कर लिया। विलीन करना ही प्रेम का पहला लक्षण है। जो विलीन नहीं हुआ, अपने आप को बचा लिया, जो साहस नहीं कर पाया, जो मांग में पड़ा रहा, अपने आप को विसर्जित नहीं कर पाया, वह प्रेम को कभी नहीं समझ पाएगा।

प्रेम तो ईश्वर भी हमसे करता है और ऐसा करता है कि जिसकी सीमा नहीं। उसकी नकल भी हम नहीं कर पाए। उसने एक मौसम नहीं रखा, कई मौसम बनाएं ताकि हम खुश रह सकें। उसने हर रंग, आकार, स्वाद के फल रचे। उसने धरती बनाई, थोड़ा-सा डालने पर वह हमारे भंडार भर देती है, सिर्फ इसलिए कि हम खुश रह सकें। सब कुछ उसने रचा इसलिए कि हम खुश रहें, क्योंकि वह सिर्फ प्रेम करना जानता है। मगर हम हैं कि शिकायतों से भरे बैठे रहते हैं। जो है उसमें हमारा पेट भरता नहीं है। हमें बनना होगा ईश्वर की तरह, हमें बनना होगा एक बच्चे की तरह, हमें बनना होगा मां की तरह, निस्वार्थ प्रेम के लिए।