चेतनादित्य आलोक

मौन का संबंध हमारे भीतर से होता है, जबकि चुप्पी बाहर घटित होती है। मौन और चुप्पी में वही अंतर होता है, जो फूल और उसकी सुगंध में होता है। मौन की साधना करने का मतलब भीतर की यात्रा करना होता है। जाहिर है, जिसने जीवन भर बोलने का अभ्यास किया हो, यानी बाहर की यात्राएं की हों, उसके लिए मौन की साधना करना यानी भीतर की यात्रा… अंतर्यात्रा पर चलना अत्यंत कठिन होता है।

लेकिन अगर अभ्यास से धीरे-धीरे मौन सधने लगे, यानी व्यक्ति भीतर उतरने लगे तो उसे अद्भुत अनुभव होने लगते हैं। प्रतीक रूप में एक स्मृति प्रासंगिक है। एक परिचित वर्षों से रविवार को साप्ताहिक मौन-व्रत रखते आ रहे हैं। हालांकि मौन व्रती होकर वे कुछ बोलते तो नहीं, लेकिन उनके शेष सारे क्रिया-कलाप और आचरण पूर्ववत् ही रहते हैं, यथा खाना-पीना, सोना-जागना, उठना-बैठना, घूमना-फिरना, हंसना-मुस्कराना, दुखी और क्रोधित होना आदि।

दिलचस्प यह है कि रविवार को उनके दुखी और क्रोधित होने का कार्यक्रम सामान्य दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक ही लंबा चलता है, जिसके दो प्रमुख कारण है। पहला यह कि उस दिन विद्यालय में छुट्टी रहने के कारण बच्चे घर पर ही रहते हैं और उनके लिए ‘परेशानियां’ खड़ी करते रहते हैं। दूसरा कि चुप रहने के कारण उनकी सारी भड़ास भीतर ही दबी रह जाती है।

हालांकि वे अपनी भड़ास निकालने के लिए अनेक प्रकार के प्रयोग करते रहते हैं, जिनमें चेहरे की भाव-भंगिमा एवं देहभाषा का उपयोग यथा आंखें तरेरना और हाथों को हवा में लहराते हुए क्रोध प्रकट करना आदि शामिल होता है। वे विशेष रूप से सामने वाले को कागज की पर्चियां थमाकर लिखित रूप में भी अपना क्रोध प्रकट करते रहते हैं। यही कारण है कि उस दिन वे पर्चियों का एक बंडल और कलम हमेशा साथ रखते हैं।

बहरहाल, उनका साप्ताहिक मौन-व्रत और उससे जुड़ी अनेक कहानियां, जुमले और चुटकुले आदि अब तक लोक-प्रसिद्ध हो चुके हैं। यहां तक कि उनकी जान-पहचान वालों ने अब तक उनके कई उपनाम भी रख दिए हैं, मसलन ढोंगी, ठग, नौटंकीबाज, अंधविश्वासी आदि। कुछ रिश्तेदार बदनामी के भय से उनसे दूरी बनाकर रहते हैं, जबकि उनकी पत्नी को लगता है कि वे मौन का व्रत सिर्फ घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों से बचने के लिए रखते हैं। पता नहीं, इन बातों में कितनी सच्चाई है, लेकिन एक बात से तो उनके परिवार वाले, मित्र और रिश्तेदार सभी सहमत रहते हैं कि रविवार की चुप्पी की भरपाई वे अक्सर सोमवार को बोल-बोलकर करते हैं।

हमारी संस्कृति में मौन की बड़ी महिमा है। कहते हैं कि मौन में समाधान मुखर होता है। इसलिए मौन में जीवन के गूढ़तम प्रश्नों का हल निकालना संभव होता है। अगर कोई ऐसी समस्या हो जिसका समाधान लंबे समय से नहीं हो पा रहा हो तो मौन मार्ग दिखा सकता है। यही कारण है कि अध्यात्म जगत में मौन के बिना आगे की यात्रा संभव नहीं हो पाती, क्योंकि मौन ही वह साधन है, जिसके माध्यम से अध्यात्म के शिखर तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त होता है। प्रश्न है कि मौन को साधा कैसे जाये, क्योंकि मौन को साधना कोई सरल कार्य नहीं है। यह मौन दरअसल आध्यात्मिक साधकों के लिए जितना आवश्यक है, उतना ही कठिन भी है।

इसकी कठिनाई का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आरंभिक चरणों मौन की साधना करने वाला यानी चुप रहने वाला व्यक्ति अपने भीतर में इतना अधिक बोलने लगता है कि उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी यही स्मरण रखना हो जाती है कि वह मौन की साधना कर रहा है… कि उसे कुछ बोलना नहीं है। इस प्रकार धीरे-धीरे ‘कुछ बोलना नहीं है’ को याद रखना ही उसका मुख्य काम हो जाता है।

नतीजतन, मौन उससे छूट जाता है और वह बरबस ही बोल पड़ता है। ओशो ने इस संदर्भ में एक बड़ी ही रोचक सूफी कहानी कही है, जिसके मुताबिक, एक गुरु ने अपने चार शिष्यों को मौन की साधना करने के लिए कहा। चारों शिष्य अपनी इबादतगाह में बैठकर मौन की साधना करने लगे। शाम का समय था। वहां कार्य करने वाला व्यक्ति उधर से गुजरा ही था कि पहला मौनव्रती बोल उठा- ‘जरा दीया जला दे भाई! सांझ हो आई है।

पहले के बोलते ही दूसरे शिष्य ने कहा कि तुमने तो मौनव्रत तोड़ दिया।’ इस पर तीसरे शिष्य ने कहा- ‘अरे! तुम भी बोल गए। ये क्या कर रहे हो तुम लोग भाई?’ तभी चौथे शिष्य ने मुस्कराकर कहा- ‘तुम सब बोल गए… एक मैं ही असली साधक हूं, जो अब तक चुप हूं।’ जाहिर है कि मौन की साधना करना मनुष्य के लिए अत्यंत कठिन कार्य होता है।