प्रभात कुमार

कुछ समय पहले लगभग पैंतालीस बरस के दिवंगत व्यक्ति की तेरहवीं के क्रम में मेहमानों के लिए पकाए गए खाने में पूरी-छोले, मिठाइयां और अन्य पकवान परोसे गए थे। शायद ही किसी को इससे किसी को दिक्कत थी या इस पर उनके दिमाग में कोई सवाल उभर रहा था। यह भी किसी को सोचना जरूरी नहीं लगा होगा कि ऐसा खाना तो खुशी के अवसरों पर परोसा जाता है। आयोजन में स्वाभाविक शोक और उदासी तो थी, लेकिन सामाजिक मंच पर किया जा रहा दिखावा स्पष्ट झलक रहा था। ऐसा लग रहा था कि दुख भरे अवसरों पर सादगी भरी परंपराएं छोड़ी जा रही हैं। इस माध्यम से भी संबंधों के ढीले तस्मे कसने का काम किया जाने लगा है।

ऐसे वक्त पर भी औपचारिकताएं किस कदर हावी ही रही हैं, इसका अंदाजा इससे लगता है कि शोक प्रवचन खत्म होने से कुछ देर पहले ही अधिकांश लोग हाजिरी दर्ज करने के लिए पहुंचते हैं। सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर शोक सूचनाओं को ‘लाइक’ भी किया जा रहा है। शोक संदेश कब से तीन अक्षरों में संक्षिप्त होकर ‘आरआइपी’ यानी ‘मृतक की आत्मा को शांति मिले’ में तब्दील हो चुके हैं। इधर बाजार जिंदगी के हर क्षेत्र को काबू कर रहा है। भारतीय समाज में ‘अंतिम संस्कार सेवाएं’ अब कारोबार के तौर पर पहुंच चुकी हैं।

बदलते परिवेश में जिंदगी के क्रियाकलाप यांत्रिक रूप से संपादित होते जा रहे हैं। रिश्तेदारों, संबंधियों और परिचितों का मिलना-जुलना सिकुड़ रहा है। लोग जीवन अपने अंदाज में जीने में व्यस्त होते जा रहे हैं। सुविधाएं बढ़ रही हैं। जीभ पटाने के लिए नए स्वाद गढ़े जा रहे हैं। पहनने और दिखाने के लिए नए परिधान हैं। फैशन की भेड़चाल में शामिल रहने के लिए कैसे भी वस्त्र पहने जा रहे हैं।

वक्त की अवास्तविक कमी ने इंसान को स्वकेंद्रित कर दिया है। जीवन के महत्त्वपूर्ण उत्सव, विवाह का आयोजन चुनिंदा उपस्थिति में किसी शानदार, महंगे होटल या ‘रिसार्ट’ यानी आलीशान भवन में करना बेहतर समझा जा रहा है। त्योहारों को राजनीतिक वस्त्रों से खूब लाद दिया गया है, जिनके नीचे उनका सांस्कृतिक बोध दब गया है।

हम अपनी सहूलियत के मुताबिक बहुत चीजों, बातों और परंपराओं की प्रायोगिक विधि बदलते जा रहे हैं। इसमें विकास ने विशेष भूमिका निभाई है। समाज के हर तबके के पास सुविधाएं पहुंचने, खासतौर पर मोबाइल के कारण सब कुछ बेखौफ उपलब्ध हो रहा है। हमें फुर्सत नहीं है। ऐसे में कुछ और भी है, जिसे संपादित करने में हर्ज नहीं। रोजी-रोटी के प्रयासों की धूप में काफी कुछ छूटना स्वाभाविक है।

भविष्य के कुछ पाठ हमारे सामने पहले से रख दिए जाते हैं। समय रहते अगर हम उन्हें बांच लें तो बेहतर रहता है। जिनके बच्चे वांछित समय पर नहीं पहुंच पाते, उनके संबंधियों को अमुक की मृत्यु के बाद विवशतावश परंपरागत संस्कार करवाने पड़ते हैं। एक बाध्यता हो जाती है। दूर या विदेशों में रह रहे संबंधियों के लिए भी यह सोच सहयोगी रहेगी जो काफी लोगों की आकस्मिक जिम्मेवारियां कम या सीमित कर सकती है। इसलिए जिंदगी के बाद के क्रियाकलाप, पुनर्जागरण, पुनर्मूल्यांकन चाहते हैं।

यहां उन विद्वान समाज सुधारकों के प्रयासों के सदंर्भ लिए जा सकते हैं, जिन्होंने सामाजिक बुराइयों, रूढ़ियों को पिघलाने की निरंतर कोशिश की। हमारा कम-पढ़ा लिखा और ग्रामीण समाज अभी इनकी गिरफ्त में है। आवश्यक परंपराओं के नाम पर जारी इन रीति-रिवाजों बारे सोचा जाना चाहिए। इनमें दुख संभवत कम महसूस करने, दिवंगत की आत्मा को सुख चैन देने के लिए रची औपचारिकताओं का समावेश किया गया होगा, लेकिन तकनीकी, डिजिटल तरीके से और अब कृत्रिम बुद्धि के सान्निध्य में निरंतर बदलते हुए परिवेश में आत्मा को संतुष्ट करने या उसके असंतुष्ट रह जाने का विचार कालग्रस्त लगता है।

निश्चित स्थान पर जाकर अस्थि विसर्जन, रोजाना पानी से घड़ा भरना, तेरह दिन का शोक, बिना छौंक सादा खाना, सांसारिक सामान का दान, भोज, हर माह खाना खिलाना और फिर बरसी अप्रासंगिक लगती है। एक विशेष अवधि तक परिवार में शुभ कार्य नहीं किए जाते। विश्वास के अनुसार, समाज में दूसरी परंपराएं भी चल रही हैं।

परिवार या निकट संबंधियों के पूर्व निश्चित महत्त्वपूर्ण कार्य, उदाहरण के तौर पर विवाह रुकते दिखते हैं तो बरसी वर्ष पूरा होने से पहले कई बार तो दो महीने में ही पूजा करवाकर निबटा दिया जाता है। अगर ऐसे विवशतापूर्ण कार्य से ‘आत्मा’ अप्रसन्न नहीं होती तो सभी रिवायतों को कम या समाप्त करने से भी नाराज नहीं होगी।

इंसानों की दुविधाएं देखते हुए लिए गए जरूरी निर्णय पर ‘आत्मा’ प्रसन्न होगी। परिवेश भी इंसान का ही है जो उसकी सामाजिक और निजी संतुष्टि के लिए बनाया गया है। परिस्थितिवश अपने भले के लिए इंसान को ही बदलना है। समाज तो यों भी अपने कामों में व्यस्त रहता है। यह फैसला अप्राकृतिक बुद्धि को नहीं, नैसर्गिक समझदारी को लेना है। समाज के कई संप्रदाय, संक्षिप्त शैली में यह सब कर रहे हैं। उनसे प्रेरणा ली जा सकती है।