लोकेंद्रसिंह कोट
पहली बारिश की अपनी तासीर है। बड़ी चतुराई से बारिश आसमान को पूरा ढंक कर धरती को चूनर ओढ़ा देती और सारी तपिश मिटा देती है। वह तपिश जो सिर उठाए थी, आम, अंगूर, खरबूज, तरबूत में घुली हुई थी, वह कह उठती है- मेरी सखी आई है बारिश, स्वागत कीजिए। बादल बिजली कड़काते हैं, जैसे मिलन की सारी स्मृतियों को अपने अंदर कैद करना चाहते हों। बादल जैसे नगाड़े बजाते हैं और नीचे जमीन पर सारे जीव इतने शोर में भी आनंद की अनुभूति करते हैं।
चट-चप-चट की आवाजों के साथ पहली-पहली बूंद जब जमीन से वाबस्ता होती है, तो लगता है, जैसे ढोलक पर थाप पड़ रही हो, मेघ-मल्हार बज रहा हो। मयूरों में चपलता आ जाती है, चिड़ियों में नया उत्साह भर जाता है, वृक्ष-वृंद ऐसे खड़े हो जाते हैं जैसे बच्चा नहाने से पहले उत्सुक रहता है। लोगों के चेहरे पर राहत दिखाई देती है और बच्चों की आंखें बड़ी-बड़ी बूंदों की भांति विस्फारित हो जाती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है, उनकी जलक्रीड़ा का समय आ गया है।
पहली बारिश पहले थाप देती है, फिर जोरों से बरसने लगती है और जमीन पर पानी एक मतवाले हाथी की तरह इधर-उधर बहने लगता है। धरती का पोर-पोर भरने का साहस उसमें होता है। धरा के उन पोरों में भी वही आकाश होता है, जो बाहर होता है। आकाश सबको स्वीकार करता है, अच्छा-बुरा कोई उसके लिए अस्पृश्य नहीं है। जीवों का शरीर भी पंचतत्व से मिल कर बना है, उनमें भी आकाश होता है। जितनी खाली जगह हमारे शरीर में है, वह आकाश तत्त्व ही है।
इसलिए मानव के अंदर भी सभी को स्वीकार करने का गुण होता ही है। बारिश का लक्ष्य होता है, प्यासी धरा को तृप्त कर देना। दूसरों को तृप्त करना जल का लक्षण है। जल इतना विनम्र होता है कि वह जहां जैसा स्वरूप मिलता है, वैसा हो जाता है। जैसा देश-वैसा भेष के अंदाज में। मानव शरीर का अभिन्न अंग है पानी। करीब सत्तर प्रतिशत हमारे शरीर में पानी ही है। इसलिए हमारे अंदर भी विनम्रता का गुण भरा है।
पहली बारिश के बाद हवा का रुख भी एकदम बदल जाता है। वह कहीं रूठी-रूठी-सी थी, जो जल की बूंदों के साथ मिल कर संगत से रंगत बदलते हुए हमजोली होकर शीतल हो जाती है। इसी हवा में बहती है वह सोंधी खुशबू, जो मदहोश कर देती है और रूहानी-सा महसूस कराती है। हम सब जानते हैं कि बारिश की बूंदों में कोई खुशबू नहीं होती, पर जब वे धरती को स्पर्श करती हैं, तो एक प्रकार की सोंधी खुशबू आती है।
इस खुशबू को ‘पेट्रिकोर’ कहा जाता है। कैंब्रिज में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के सहायक प्रोफेसर कुलेन बुई कहते हैं, ‘दरअसल, पौधों द्वारा उत्सर्जित किए गए कुछ तैलीय पदार्थ और बैक्टीरिया द्वारा उत्सर्जित कुछ विशेष रसायन बारिश की बूंदों के साथ प्रतिक्रिया करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप हम ऐसी सोंधी खुशबू महसूस करते हैं।’ जब बारिश होती है तो मिट्टी में मौजूद नोकार्डिया बैक्टीरिया धरती के गीले होने पर गैसोमाइन नाम का रसायन छोड़ते हैं। जब बारिश की बूंदें धरती की छिद्रयुक्त सतह पर गिरती हैं, तो वे हवा के छोटे-छोटे बुलबुलों में तब्दील हो जाती हैं। ये बुलबुले फूटने के पहले ऊपर की ओर बढ़ते हैं और हवा में बेहद छोटे-छोटे कणों को बाहर निकालते हैं, जिसे ‘एरोसोल’ कहते हैं। ये एरोसोल भी सोंधी खुशबू बिखेरने में भूमिका निभाते हैं।
यह हवा का गुण ही है कि इतनी सेवा करने के बाद भी सेवा का अहंकार नहीं। हम मानव भी पंचतत्व के नाते हवा से भी बने हैं, तो हमारे अंदर भी यह अहंकार विहीन सेवा का गुण तो होगा ही। यह पहली बारिश ही है जो हमारे तन-मन, भावनाओं, विचारों को भिगोती है वही चुपके-चुपके हमें कई संदेश भी देती है। बारिश में धरती महसूस करती है हर पौधे, पेड़ के उल्लास, वेदना, संघर्ष, उनके लालन-पालन को बहुत करीब से। वह सबका ध्यान बगैर किसी भेदभाव के समान रूप से करती है। धरती में हम थोड़ा-सा डालते हैं और वह हमारे भंडार भर देती है। हममें भी धरती का अंश है, तो हमारे अंदर भी उसके सारे गुण होंगे ही।
पहली बारिश की बूंदें कहती हैं कि तुम वास्तव में तुम नहीं हो, इस सृष्टि की अनुपम कृति हो। पहली बारिश के रुक जाने के बाद धरा से एक तपिश निकलती है, जो कहती है कि पुरानापन नवीनता में बदल रहा है। यह तपिश, उष्णता ही पांचवां अग्नि तत्व है, जिसकी संगत कहती है कि हमेशा अपने उत्साह को ऊंचा रखें, जैसे एक दीये की लौ हमेशा ऊपर ही जाती है। हमारे शरीर का निश्चित तापमान इसी अगन की वजह से है। जीवन में ऊष्मा भी इसी की वजह से तो है।
