हेमंत कुमार पारीक
कुछ समय पहले देश की शीर्ष अदालत ने अपने एक फैसले में कहा कि खेल मैदान के बिना कोई स्कूल-कालेज नहीं हो सकता। जाहिर है, यह फैसला सराहनीय है। स्मृतियों ने करवट ली। यों यह संभवत: नियम है कि स्कूल-कालेज में खेल परिसर होना चाहिए। लेकिन जब जरूरी बातें उपेक्षित होती रहती हैं, तो इस पहलू पर कोई कैसे ध्यान देता। बहरहाल, अदालत के इस रुख के बाद बहुत सारे पुराने लोग उस समय में पहुंच गए होंगे, जब किसी भी स्कूल के साथ लंबे-चौड़े मैदान हुआ करते थे।
बिना खेल के मैदान किसी भी स्कूल की कल्पना नहीं की जा सकती थी। उस वक्त ज्यादातर स्कूलों के चारों तरफ मैदान ही मैदान होता था, लेकिन एक खास मैदान जरूर होता था। खो-खो के लिए स्थायी खंभे गाड़े गए थे। सरहद पर आम, इमली और नीम के बड़े-बड़े घने वृक्ष होते थे। गर्मी के दिनों में वे पेड़ गर्म हवा से राहत देते थे और ठंड के दिनों में उन्हीं पेड़ों से छन-छन कर आती धूप में ठंड का असर कम हो जाता था। हालांकि आज की तरह उस वक्त स्कूल में कुछ बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं। कुर्सी-टेबल नहीं थे। सफेद या हरे बोर्ड नहीं हुआ करते थे। बच्चे जूट की बनी लंबी-लंबी फट्टियों पर बैठा करते थे। पढ़ाई जारी रहती थी ‘अ’ आम, ‘इ’ इमली।
दिन के उत्तरार्ध में स्कूल का समय खत्म होते ही बच्चे हो-हल्ला मचाते हुए घर की तरफ भागते थे। लेकिन कुछ ही समय बाद वे वापस लौटते उसी स्कूल मैदान में। किसी के हाथ में गिल्ली-डंडा होता, किसी के हाथ में पतंग और लटाई तो किसी की जेब में कंचे भरे होते। मैदान इतना विशाल होता कि कहीं खो-खो का खेल चलता, कहीं कबड्डी हो रही होती तो कहीं आसमान में पतंगों के दांवपेच। सबके अलग-अलग मनभावन खेल थे।
स्कूल तो छोटा था, पर मैदान उससे बड़ा। अंधेरे के आगाज तक खेल चलते रहते थे। उस वक्त तक बच्चे किताबों को भूले रहते। चाक, डस्टर, ब्लैकबोर्ड और मास्टर का डंडा उनके जेहन में कहीं नहीं होती। यह सब मैदान का जादू था। पढ़ाई-लिखाई बोझ नहीं थी। ये मैदान मानसिक और शारीरिक विकास में सहयोगी हुआ करते थे।
ऊंची कक्षाओं में पढ़ने वालों के कालेज शहर के एक छोर पर थे। उस दौर के अपने आसपास की बात याद की जाए तो तब हमारे उच्च माध्यमिक विद्यालय की बनावट आकर्षक वर्गाकार थी। चारों कोनों में बाहर जाने के द्वार थे। कहीं से भी मैदान की ओर जाया जा सकता था। पीछे की तरफ फुटबाल का वृहद मैदान था। साथ में अमरूद का एक बगीचा। मध्याह्न अवकाश में दूर से आए विद्यार्थी बगीचे में बैठकर भोजन किया करते थे और शाम के वक्त घर लौटने के पहले उसी मैदान में हाकी, फुटबाल, बैडमिंटन या टेनिस खेलते दिखते।
इसके अलावा, नगर निगम का पार्क आज के आधुनिक पार्कों की तरह था। हालांकि उस वक्त पूरी जमीन कच्ची हुआ करती थी। नौनिहालों के स्कूल को बालमंदिर कहते थे। वहां भी एक छोटा-सा मैदान था बच्चों के लिए। उस मैदान में बच्चों के खेलने के लिए सी-सा, फिसलपट्टी और झूले थे। उससे हटकर एक व्यायामशाला हुआ करती थी। शाम के वक्त बच्चे और नौजवान कुश्ती और अन्य कसरत किया करते थे। साथ ही बुजुर्गों के लिए बैठने की आरामदायक व्यवस्था थी। वे बच्चों की उछल-कूद देखकर मन बहलाते थे।
कहने का आशय यह है कि तब घर से लेकर स्कूल तक के बच्चों के लिए खेलने-कूदने को उनके जीवन का और स्वाभाविक विकास का जरूरी हिस्सा माना जाता था। लेकिन उसके बाद सब गायब होता चला गया। यह कैसे हुआ, किसने किया? आज जब कारण ढूंढ़ा जाता तो भू-माफिया पर नजर जाती है। वे मैदानों में पांव पसारने लगे। येन-केन प्रकारेण मैदान उनके होते गए।
बड़े-बड़े भूखंड कट गए। इधर-उधर बहुमंजिला इमारतें नजर आने लगीं और स्कूल एक कोने में सिमट गए। अब तो हालत यह है कि स्कूल जाने के पहले गलियों से गुजरना पड़ता है। स्कूल के साइन बोर्ड जाने कहां चले गए। वह स्कूल जहां हम बच्चों ने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की थी, हथेली की तरह खुला था। पर अब बंद मुट्ठी जैसा हो गया है। न तो वहां खो-खो के डंडे गड़े हैं और न वे आम, इमली और नीम के दरख्त हैं।
न कबड्डी के लिए मैदान बचा है और न कोई उड़ती हुई पतंग दिखती है। वरना सुबह सुबह ‘अ’ आम का, ‘इ’ इमली का तथा ‘अं’ अंगूर का सुनाई पड़ता था। अभी भी कभी स्कूल की तरफ सड़क से गुजरा जाए तो कानों में आम, इमली और नीम गूंजने लगते हैं। अब वह सब सपने में है। सवाल है कि सरकार और समूचा तंत्र क्या कर रहा था?
खैर, अब देश की सर्वोच्च संस्था ने इसका संज्ञान लिया है तो बहुत सारे लोगों को राहत हुई होगी। वरना तो आज गली-कूचे में स्कूल और कालेजों की बहार है। कुकुरमुत्ते की तरह पैदावार हो रही है। इस फसल को रोकने की जरूरत है। पढ़ाई-लिखाई के साथ देह, दिल और दिमाग का स्वस्थ होना आवश्यक है। इसलिए स्कूल के साथ खेल के मैदान जरूरी हैं।