सदाशिव श्रोत्रिय
अपनी सुप्रसिद्ध कृति ‘ए स्टडी आफ हिस्ट्री’ में आर्नोल्ड टायन्बी ने एक जगह कहा था कि इस सृष्टि में मानव को आए हुए जितना समय हुआ है, उसे देखते हुए लगता है कि उसकी उम्र अब भी एक अबोध शिशु से अधिक की नहीं है। जिस तरह कोई शिशु अपनी अबोधता में किसी मूल्यवान वस्तु को नष्ट कर सकता या स्वयं के जीवन को कोई भारी क्षति पहुंचा सकता है उसी तरह इस बात का खतरा अब भी पूरी तरह बना हुआ है कि वह अपनी किसी असावधानी या मूर्खता के कारण अपने साथ-साथ इस समूची मानवता को ही खत्म कर दे।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हमें यह विश्वास होने लगा था कि कोई भी राष्ट्र शायद कभी इतना पागलपन नहीं कर सकता कि वह किसी अन्य राष्ट्र से युद्ध करते हुए आणविक आयुध तक के प्रयोग की बात करने लगे। पर रूस-युक्रेन युद्ध अब जिस तरह का मोड़ लेता जा रहा है, उससे टायन्बी की बात निश्चय ही हमारे मन में एक नया हौल पैदा करने लगी है।
किसी राष्ट्र की इससे बड़ी मूर्खता भला क्या हो सकती है कि वह करोड़ों-अरबों की संपत्ति केवल अपने ही एक पड़ोसी देश के लाखों लोगों के दशकों के श्रम से सृजित निर्मितियों को नष्ट करने और उन लोगों को अपने आरामदेह घरों से निर्वासित कर अन्य देशों में शरण ढंूढ़ने को विवश करने में व्यय कर दे।
आल्डस हक्सले, जिन्हें अधिकांश लोग उनकी सुप्रसिद्ध कृति ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ के लेखक के रूप में जानते हैं, अपने एक उपन्यास ‘एप ऐंड एसेंस’ की शुरुआत गांधी की मृत्यु और उसके संबंध में इस टिप्पणी से करते हैं कि आज मानवता के जीवित रह पाने की अंतिम उम्मीद समाप्त हो गई है। इस उपन्यास में लेखक तृतीय विश्व युद्ध के बाद के उस भयावह और मूल्यविहीन समाज का लोमहर्षक चित्रण करता है, जो अब हमें अपने बहुत करीब नजर आने लगा है।
वैसे भी पिछले कुछ समय में न केवल हमारे देश, बल्कि समूची दुनिया में प्रेम, अहिंसा, सहानुभूति, निस्वार्थता, नैतिकता आदि का जो जबर्दस्त ह्रास हुआ है, उससे लगता नहीं कि दुनिया भर के नेता वास्तव में कोई ऐसे कदम उठाना चाहते हैं, जिससे मानव जाति अपने लिए किसी सुरक्षित वर्तमान और भविष्य का कोई ठोस और वास्तविक सपना देख सके।
अभी-अभी मनुष्य अपने प्रयत्नों से कोविड जैसी महामारी पर विजय पाने में फिर भी काफी कुछ सफल हो पाया, पर वही मनुष्य आज आपसी शत्रुता, क्रोध, ईर्ष्या, प्रतिद्वंद्विता, लोभ और भोगवाद जैसी अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त नहीं कर पा रहा है। मानव जाति ने आज तक जो परिवर्तन हासिल किए हैं, वे केवल सत्ता और संपत्ति को हस्तगत करने के तरीकों में किए हैं और उसके लिए उसने किसी भी किस्म के छल, हिंसा या अनैतिकता का सहारा लेने से कोई परहेज नहीं किया है।
आज के मीडिया और इंटरनेट का भी उसने सत्ता और संपत्ति हथियाने के प्रयास में जिस तरह का नैतिक-अनैतिक प्रयोग किया है और जिस तरह झूठ-सच का इस्तेमाल करते हुए मानवता को गुमराह करने की कोशिश की है, वह कुछ समय पहले तक सर्वथा कल्पनातीत प्रतीत होता था।
शासकों के व्यक्तिगत चरित्र, ज्ञान और गुणवत्ता का कई देशों के लिए अब जैसे कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। कहा तो यह जाता है कि किसी देश का एक व्यापक तंत्र किसी अकेले व्यक्ति की बदौलत नहीं चलता, पर फिर भी इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि जिस व्यक्ति के हाथ में किसी देश का सर्वोच्च दायित्व रहता है वह अगर कमअक्ल, असंवेदनशील, स्वार्थी, क्रूर, मक्कार, झूठा, अपरिष्कृत रुचियों वाला, अनुभवशून्य, बहकाया जा सकने वाला, पूर्वाग्रही, लोभी, अकर्मण्य, बदमाश और अनैतिकता के साथ समझौता करने वाला हुआ तो वह देश उसके शासन में कैसे सही दिशा में प्रगति कर पाएगा? क्या हम नहीं जानते कि सद्भाव, सहानुभूति और गलत कामों से लज्जा आज कहीं भी शासकों के आवश्यक गुण नहीं रह गए हैं?
हम चाहे प्लेटो के दार्शनिक राजा (फिलोसफर किंग) की बात करें या हमारे महाकाव्यों में वर्णित उन राजाओं का जिक्र करें, जो अपने पुत्रों को शासन की योग्यता अर्जित करने के लिए वनवासी ऋषियों को सौंप देते थे, एक अशिक्षित, अर्द्धशिक्षित, असंस्कृत, उद्दंड या बेशर्म शासक पहले भी किसी शासन-प्रणाली का आदर्श नहीं रहा। यह हमारे इस (कलि) काल की ही विशेषता है कि जिस एक शासक को एक बार जनता अपने पांवों तले रौंद देती है, उसी को अगले कुछ वर्षों बाद अपने माथे पर बिठा लेती है।
महर्षि पतंजलि हों या गीता के उपदेशक कृष्ण, बुद्ध हों, महावीर या महर्षि अरविंद, सभी ने इसी बात को अलग-अलग ढंग से कहा है कि मानव जाति की प्रगति अंतत: उसके व्यक्तिगत गुणों की प्रगति पर ही निर्भर करती है और करेगी। आज के संदर्भ में भी यही बात हम अगर एक बार फिर से याद कर पाएं, तो संभव है हम अपने आप को किसी आसन्न प्रलय के संकट से बचा सकें।