सुरेश सेठ
मेरी बात आप तक पहुंच जाएगी, इसका मुझे विश्वास है, क्योंकि कुछ छपे, बोले या देखे शब्दों को प्रसारित करने के लिए हमने सबका उचित ‘भुगतान’ कर दिया है। आप बताइए, किसी को उसकी मेहनत का उचित मूल्य चुकाना क्या अनैतिकता है, बेइमानी है? बल्कि इससे अधिक ईमानदारी तो कोई और हो ही नहीं सकती। सच जानिए, भौतिक रूप ही नहीं, उनकी आत्मा तक हमारे धन्यवाद से सराबोर हो जाती है।
माफ कीजिए, मैंने आत्मा तक कह दिया। दरअसल, युग बदल गया, उसके मूल्य बदल गए। आज नई दुनिया के इस बाजार में हर चीज बिकने लगी। आत्मा नाम की वस्तु, जी हां इस वस्तुवादी युग में उसे वस्तु ही कहेंगे, न जाने कब से अनुपस्थित हो गई।
कभी-कभी हमारे बड़े-बुजुर्ग इनकार करते हुए कहा करते थे कि ‘जी नहीं, मैं रिश्वत नहीं ले पाऊंगा, मेरी आत्मा, मेरा जमीर गवारा नहीं करता।’ लेकिन जनाब, आत्मा तो अनुपस्थित हो गई, और जमीर न जाने कब का बिकाऊ हो गया! यह दुनिया एक बड़ा नीलाम घर है।
यहां हर चीज बिकती है। सही है, कुछ उम्मीद से सस्ता बिक जाता है और कुछ सिद्धांतों और आदर्शों की दुहाई अधिक देते हैं, उनको अधिक भरपाई देनी पड़ती है। ऐसे समय में कोई ऐसा हो, जो किसी भी तरह से अपनी आत्मा को इससे बचाए रख लेता है तो निश्चित रूप से वह बहुत सारे लोगों को हैरान करेगा।
अब इसे ऐसे देख सकते हैं। आप इस सभा में तशरीफ लाए। हमने आपके आने-जाने की व्यवस्था की। दिन के लिए भरपेट भोजन का इंतजाम ही नहीं, आपको लौटते हुए आपकी मुंह दिखाई की रस्म भी पूरी कर देंगे। यानी जैसा मुंह होगा, वैसी ही उस पर धन की क्रीम चुपड़ दी जाएगी। जो आपको इकट्ठा करके लाया, उसे अधिक शगुन मिलेगा। जो पीछे-पीछे केवल जाने और तालियां बजाने आया, उसे जाहिर है, कुछ कम मिलेगा। पर मिलेगा सबको।
बस यही तो हमारा समाजवाद है! लेकिन चंद कथित खोजी पत्रकार हमारी इन सभाओं को भाड़े की सभाएं और हमारा संदेश आप तक पहुंचाने वालों को भाड़े के संवदिया कह देते हैं। लेकिन हम उसे इनके श्रम का मूल्य कहते हैं और हमारी आलमारियां खोल कर बरसों के गड़े मुर्दे उखाड़े जाने को उनकी खोजी पत्रकारिता को कथित पत्रकारिता कहते हैं। अब सोचता हूं कि ऐसी स्थिति से बचने का रास्ता क्या होगा!
आपको पता है, आजकल हमारे इस अवसाद ग्रस्त देश में एक ही सुख रह गया है। दो जून रोटी नहीं, पहनने को उचित कपड़े नहीं, सिर पर छत के नाम पर आसमान का चंदोवा है, जो आजकल ‘मौसम सामान्य है’ की भविष्यवाणी के साथ इतना गरज कर बरसता है कि ये सड़कें नदी-नालों का शुबहा देने लगती हैं, जिनमें आपकी कारें जब पानी में डूब कर मलबा हो जाएं, तो डोंगियों और नौकाओं की तलाश शुरू हो जाती है। खैर, सामान्य बारिश से उखड़े हुए लोगों को नौका विहार का मौका देता है, और बाढ़ ग्रस्त इलाकों में नेताओं को वायुयानों से मुआयना करके यह संदेश देने का, कि स्थिति नियंत्रण में है।
फिर भी जब संकटग्रस्त लोगों के लिए अनुदान राशि घोषित हो जाती है, तो मध्यजनों के चेहरे खिल उठते हैं। लेकिन हुजूर यह अनुदान राशि घोषित करते हुए कंजूसी न किया कीजिए। आजकल सौ दो सौ करोड़ का घपला कौन करता है? पैमाना तो हजारों करोड़ रुपए का पिछली सरकार के समय ही बन गया था। जांच तो हर घपले की ठंडे बस्ते में ही झुकनी है।
घपला छोटा हो, तो ठंडा बस्ता शार्मिंदा हो जाता है। एक उलाहने के साथ नेता जी की ओर देख लेता है, कि ‘हुजूर कितनी कम रकम थी। अपने स्तर पर ही पड़ताल करके बता देते कि आंखों में कोई दम नहीं। राजनीतिक अदावत की वजह से लगाए जा रहे हैं। हमारे बंधु तो दूध के धुले हैं।’ जी हां, देखते ही देखते बड़े लोगों की यह दुनिया दूध की धुली हो गई और आम आदमी साफ पानी को भी तरस गया। मगर आम आदमी क्या इसे समझ भी पाता है या फिर उसके समझ पाने के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी जाती है?
हमने बरसों से बेकार परिवारों को एक आदमी को सौ दिन रोजगार की जगह डेढ़ सौ रोजगार देने की योजना बनाई। खर्चा तीन गुणा हो गया, लेकिन अधिकांश जाली कार्डों, लाल फीताशाहों की चिरौरी और लंबित भुगतान की भेंट चढ़ गया। हम बेकारों की भीड़ को स्कूल-कॉलेज छोड़ अकादमियों में आइलैट के बैंड तलाशने या अवैध आव्रजन के लिए कबूतरबाजों के दर के बाहर कतार लगाए देखते हैं, तो अनायास ही कह उठते हैं। ‘मेरा भारत महान’।
यही उद्गार मंडी में अपनी न बिकी फसल की ढेरी पर बैठा किसान, मादक द्रव्यों के अंधेरे से लटपटाया नौजवान, आतंकवाद को सीने से लगाता अभागा जब प्रगट करना चाहे तो हम और हमारे अन्य साथी नेतागण उनमें अपने नए सपने बांटने का काम करते हैं। आप इनकी बात क्यों नहीं सुनते? क्यों हर वक्त महंगाई और भूख का रोना रोते रहते हैं?