योगेंद्र माथुर
जिस दौर में वक्त की मार से उदासी और संकट जीवन का हिस्सा बन गया दिखता हो, वैसे समय में हंसने-हंसने की बात थोड़ी अटपटी लगती है, लेकिन सच यह भी है कि जीवन में जगह बनाते दुख से छुटकारे की इच्छा शायद सबकी होती है। और इसके लिए खुशी की खोज में हर व्यक्ति प्रयासरत रहता है। इसके लिए कभी हम गमगीन माहौल को हल्का बनाने के लिए कुछ बातें तो कुछ स्थितियां गढ़ते हैं। उदासी में घुल रहे अपने आसपास के लोगों को किसी गतिविधि से या कभी लतीफा या हास्यबोध से भरी बातें सुना कर उसकी उदासी दूर करने के जतन करते हैं।
यों भी हास-परिहास के पल हमारी जिंदगी के महत्त्वपूर्ण क्षण होते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो जिंदगी की भागमभाग और थकान से उत्पन्न नीरसता और एकरसता को तोड़ने का काम करती है। लतीफा यानी चुटकुला हंसने-हंसाने का अचूक अस्त्र है, जो वातावरण की ऊब को तोड़ कर उसमें वह रस घोलता है, जिसमें डुबकी लगा कर हर कोई अपने आपको एकदम तरोताजा और स्फूर्तिवान पाता है। लतीफे का जन्म कब और कैसे हुआ, इस संबंध में प्रामाणिक रूप से कोई कुछ नहीं कह सकता, लेकिन माना जा सकता है कि मनुष्य ने मन की खिन्नता और उदासी से मुक्ति पाने के उपायों के तहत फुर्सत के दौरान ही लतीफे का ईजाद किया होगा। यह भी जरूरी नहीं कि लतीफा इंसान के दिमाग की सुविचारित उपज हो। इंसान की परिस्थितियां, संवाद, द्वंद्व और अप्रत्याशित घटनाक्रम के साथ अकस्मात ही लतीफे का जन्म हो सकता है।
लतीफे का विषय कुछ भी हो सकता है। देश, काल, परिस्थितियों के साथ-साथ व्यक्ति या फिर वर्ग विशेष के गुण-धर्म, आदत और पशु-पक्षी तक को लतीफे का विषय बनाया जाता रहा है। लतीफे के पीछे मूल रूप से हास्य की भावना काम करती है, लेकिन कभी-कभी इसमें व्यंग्य का पुट भी दिया जाता है। हास्य मिश्रित यह व्यंग्य अधिकांश चुभन पैदा करने के बजाय गुदगुदी का ज्यादा अहसास कराता है। इस प्रकार के लतीफों का उद्देश्य इंसान को उसके व्यक्तित्व और आचरण की कमजोरियों और कर्तव्य का बोध कराना भी होता है। लेकिन कई बार जाति, रंग और लिंग को लक्षित करके गढ़े गए लतीफे सुनाए तो हंसने-हंसाने के लिए जाते हैं, लेकिन उससे एक खास तरह की रूढ़ व्यवस्था और राजनीति को खाद-पानी मिलता है। कई बार यह अमानवीयता की हद तक चला जाता है। इस तरह हंसने-हंसाने की कोशिश को महज लतीफेबाजी तक समेट नहीं देखा जा सकता। कई बार यह जड़ मानसिकता और कुंठाओं का पोषण भी करता है।
हास-परिहास के माध्यम का प्रयोग पहले मनुष्यों के बीच आपसी संवाद से ही होता था, लेकिन मुद्रण या छपाई व्यवस्था के जन्म लेने के बाद लतीफे को रेखाचित्र खींच कर सचित्र बयान करने की शैली भी विकसित हुई। कार्टून या व्यंग्य चित्र के रूप में यह शैली कहीं अधिक प्रभावी साबित हुई। वर्तमान में कोई भी पत्र-पत्रिका कार्टून के बगैर ‘बिना नमक के भोजन’ की तरह लगते हैं। बच्चों के लिए प्रकाशित होने वाली हास्य कॉमिक कथाएं लतीफे का विस्तारित रूप ही कही जा सकती हैं।
चलचित्र क्रांति के बाद मनोरंजन की इस प्रक्रिया में नए आयाम जुड़े। टेलीविजन संस्कृति के फैलाव ने इस प्रक्रिया को और परिष्कृत किया। अब लतीफे सादृश्य मनोरंजन का माध्यम बनते हैं। वर्तमान में लगभग हर टीवी चैनल पर एक न एक कार्यक्रम पूरी तरह लतीफों से जुड़े हास्य पर ही केंद्रित होता है। लेकिन टीवी चैनलों पर कई बार लतीफेबाजी के नाम पर फूहड़ता हास्यबोध की गरिमा को नष्ट करके कुछ सामाजिक वर्गों को अपमानित करने का जरिया बन जाती है।
दरअसल, हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। समय के साथ-साथ चारों ओर बढ़ रहे सांस्कृतिक और वैचारिक प्रदूषण का प्रभाव लतीफे की दशा और दिशा पर भी पड़ा। मनोरंजन की यह स्वच्छ और स्वस्थ प्रक्रिया कसैली संस्कृति का शिकार हो गई। जहां कहीं भी पुरुष या युवक समूह के रूप में एकत्र हुए, उनके बीच होने वाली हास्य-विनोद की चर्चा का विषय आमतौर पर स्त्री या कभी-कभी पुरुष देह को अनावृत्त करते अश्लील प्रसंग होने लगे। इन प्रसंगों में सुनाए जाने वाले लतीफे ज्यादातर स्त्री-पुरुष के यौन संबंधों, द्विअर्थी या अश्लील संवादों पर आधारित होते हैं।
ये लोग इस तरह के लतीफों को अपनी सांकेतिक भाषा में ‘नॉनवेज’ कहते हैं। ऐसे अश्लील लतीफों के पीछे क्षण भर के रति सुख पाने की मानसिक कुंठा के अतिरिक्त कोई दूसरी भावना नहीं होती। विकृत और दूषित मानसिकता का यह फैलाव तेज गति से बढ़ रहा है। अब तो मोबाइल के द्वारा एसएमएस और एमएमएस के जरिए इस तरह के अश्लील लतीफों का आदान-प्रदान होने लगा है। स्वस्थ मनोरंजन के इस माध्यम को क्षणिक मानसिक रति सुख पाने की कामना में विकृत और दूषित करने की इस प्रकार की कोशिश न केवल घृणास्पद है, बल्कि चिंतनीय भी है। यह न केवल हास्यबोध और हंसने-हंसाने की परिस्थितियों को विकृत करता है, बल्कि इससे जिस तरह की मानसिकता तैयार होती है, वह व्यक्ति की गरिमा को गम करती है। सवाल है कि क्या हंसना-हंसाना इंसानियत के हनन पर संभव है!