कुछ दिन पहले दिल्ली के बदरपुर में मैं एक बस में सवार हुआ। थोड़ी ही दूर आगे चलने के बाद ड्राइवर ने जैतपुर मोड़ पर कुछ पल के लिए बस का दरवाजा खोला। सामान्य यात्रियों के साथ करीब एक दर्जन से ज्यादा स्कूली छात्राएं भी बस में चढ़ने लगीं। पहले तो कंडक्टर उन्हें बस में सवार नहीं होने दे रहा था। उसने ड्राइवर से भी बस का गेट बंद करने को कहा। जब ड्राइवर ने गेट बंद किया तो एक छात्रा उसमें फंस गई। शोर मचने पर ड्राइवर ने फिर गेट खोला तो कुछ और छात्राएं बस में सवार हो गर्इं। बस कंडक्टर उन छात्राओं के साथ बेहूदगी से पेश आ रहा था। मैंने इसका विरोध किया। मेरा साथ एक अन्य यात्री ने भी दिया और हमने कहा कि जब तुम इन बच्चियों से किराया वसूलोगे तो इन्हें बस में सवार क्यों नहीं होने दोगे!

कंडक्टर के ऐसे व्यवहार को देख कर मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ रहे थे। इस तरह की जाने कितनी घटनाएं हुई होंगी जब बस ड्राइवर स्कूली बच्चों को देख कर बस नहीं रोकते, बच्चे बस के पीछे भागते हुए हादसे के शिकार भी हो जाते हैं। कुछ बच्चे शरारती हो सकते हैं, लेकिन सभी के साथ ऐसा व्यवहार ठीक नहीं है। ड्राइवर को सिर्फ अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। मुझे लगा कि ये बच्चियां शायद काफी दूर से अपने स्कूल में पढ़ने आती होंगी।

खैर, सभी बच्चियों ने आपस में पैसे इकट्ठा करके बाईस टिकट लिए। उनमें से एक छात्रा ने मुझसे पूछा कि अंकल, क्या आपको पता है कि डिफेंस कॉलोनी में डायरेक्टर आॅफ एजुकेशन का दफ्तर कहां है। मैंने पूछा कि आप सभी किस स्कूल में पढ़ती हैं। उन्होंने बताया कि हम बदरपुर के पास मीठापुर में राजकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय नंबर एक में पढ़ते हैं। फिर मैंने शिक्षा निदेशालय जाने की वजह पूछी। उन्होंने बताया कि हमारे स्कूल में हमें पढ़ाने के लिए कोई अध्यापक ही नहीं है। मैंने उनसे कहा कि क्या आप सबने अपने स्कूल के हेडमास्टर को अपनी समस्या बताई है! उन्होंने कहा कि वे हमारी बात नहीं सुनतीं। मैंने उन्हें अपने क्षेत्र के विधायक से भी ये सारी बातें बताने की सलाह दी।

मेरे लिए यह खुश और हैरान होने वाली बात थी कि वे विधायक के पास भी अपनी तकलीफ लेकर गई थीं। लेकिन उनकी समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। इसलिए अब वे सभी एक साथ सीधे शिक्षा निदेशालय के दफ्तर में शिकायत करने जा रही थीं। उन्होंने मुझे डायरेक्टर आॅफ एजुकेशन के नाम लिखा प्रार्थना-पत्र भी दिखाया। यानी मेरी खुशी की वजह वाजिब थी। आठवीं-नौवीं या दसवीं में पढ़ने वाली ये बच्चियां इतनी जागरूक हैं कि अपनी पढ़ाई को लेकर सचेत हैं और स्कूल में अच्छी शिक्षा के लिए शिक्षकों की उपलब्धता को अपना अधिकार मानती हैं। इस तरह जागरूक होने के लिए मैंने उन्हें बधाई दी और कहा कि जहां आप लोग जा रही हैं, वहां अगर अपने अभिभावकों को भी साथ ले जातीं तो और अच्छा होता। लेकिन सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली उन बच्चियों में से ज्यादातर के माता-पिता के लिए रोजी-रोटी भी एक समस्या है। इसलिए एक दिन की नौकरी छोड़ना कइयों के लिए शायद मुश्किल को न्योता देना होगा।

बहरहाल, मैंने उन्हें शिक्षा निदेशालय के दफ्तर का पता बता दिया। लेकिन बच्चों की इस परेशानी को सुन कर बहुत दुख हुआ। यह हाल हमारे देश की राजधानी दिल्ली के स्कूलों का है, जहां सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के अभाव की यह दशा है। अन्य राज्यों की हकीकत किसी से छिपी नहीं है। देश भर में शिक्षकों के अभाव की रपटें अक्सर आती रहती हैं। लेकिन आबादी और बच्चों के अनुपात में स्कूल खोलने और इसके साथ पर्याप्त शिक्षकों की बहाली की जरूरत किसी सरकार को नहीं महसूस होती। किसी की दिलचस्पी शिक्षा की सूरत को सुधारने में नहीं है। सब बच्चों के दिमाग में सिर्फ अपनी विचारधारा को थोपने की फिराक में रहते हैं।

स्कूलों में वैसे शिक्षक दुर्लभ होते जा रहे हैं जो बच्चों को इंसानियत का पाठ पढ़ाएं। सबकी रुचि ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने के लिए बच्चों को तैयार करने में रह गई है। यह सोचने की बात है कि केंद्रीय विद्यालय से लेकर सैनिक स्कूल, एयरफोर्स वगैरह के स्कूल भी सरकारी स्कूलों में गिने जाते हैं। लेकिन वहां बुनियादी ढांचे से लेकर पढ़ाई-लिखाई तक की स्थिति आमतौर पर ठीक है। लेकिन बाकी सरकारी स्कूलों की हालत इस कदर दयनीय क्यों है? क्यों हमारी सरकारें देश के सभी सरकारी स्कूलों के लिए केंद्रीय विद्यालय या सैनिक स्कूलों के मानदंड लागू नहीं करतीं? ऐसा लगता है कि शिक्षा की सूरत बदलने को लेकर सरकार के भीतर वास्तव में कोई ठोस इच्छाशक्ति नहीं है।

सैयद परवेज

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta