लगभग हर मां आमतौर पर ऐसा बेटा चाहती है, जो बस उसी पर जान छिड़कता हो। वही मां जब पत्नी थी, तब वह चाहती थी कि उसका पति अपनी मां का नहीं, सिर्फ उसका खयाल रखे। कुदरत में मां की एक जैविक भूमिका है। लेकिन मानव शिशु की मां पर निर्भरता जैविक से अधिक सामाजिक कारणों से है। उसे ‘बड़ा करना, शिक्षित करना, उसका विवाह करना’ यह सब कुछ मां-पिता के सामाजिक ‘कर्तव्यों’ में शामिल है और इसलिए इंसान के बच्चे को जीवन के करीब बीस वर्ष तक भौतिक रूप से मां-पिता पर निर्भर रहना पड़ता है। इस दौरान उसके मानसिक और मनोवैज्ञानिक संस्कार गहरे बैठ जाते हैं।

मां एक इंसान ही है, जैसे कि पिता। उसकी भी अपनी मजबूरियां, अपने दबाव हैं, संस्कार और असुरक्षा हैं। सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की वजह से वह बच्चों के साथ ज्यादा समय बिताती है और इस कारण उसे ज्यादा लगाव महसूस होता है। लेकिन घर में रह कर बच्चों के खाने-पीने की हर वक्त फिक्र करने वाली मां और नौकरी करने वाली मां में बहुत फर्क हो गया है। आज की मां की भी महत्त्वाकांक्षाएं हैं, अपने सपने हैं जो उसके बच्चों के साथ जुड़े हों, जरूरी नहीं। आधुनिक एकल परिवार और उप-एकल परिवार में पिता और माता दोनों समान रूप से बच्चों की जिम्मेदारी निभाते हैं या परिस्थितियां उन्हें बाध्य करती हैं।

अगर मां सही ढंग से शिक्षित है तो उसके बच्चे भी एक ऐसा जीवन जी पाएंगे, जिसमें प्रज्ञा और अच्छाई हो। अगर वह खुद में उलझी हुई है, जीवन के बारे में कोई स्पष्ट समझ उसमें विकसित नहीं हो पाई है, तब फिर उसका बच्चों पर असर उतना ही खतरनाक हो सकता है जितना किसी भी अन्य बाहरी एजेंसी का। अधिकतर मां-पिता बच्चों को समाज के हिसाब से ‘सामान्य’ बनाना चाहते हैं। जबकि समाज खुद ही असामान्य है! यह हमारे समय के विरोधाभासों में से एक है। क्या इस समाज में रहते हुए कोई मां अपने बच्चे को युद्ध में जाने से रोक सकती है? क्या बच्चे को प्रतिद्वंद्विता में झोंकने और अनावश्यक रूप से महत्त्वाकांक्षी और लोभी, सफलता का पूजक बनाने में मां-पिता का योगदान नहीं? क्या ये बातें आगे चल कर बच्चों के जीवन के लिए संकट का कारण नहीं बनतीं? परिवार एक अलग इकाई के रूप में अक्सर समाज विरोधी भी हो जाता है और इसलिए कुछ दार्शनिकों ने परिवार और बच्चों की अलग से पारिवारिक स्तर पर परवरिश का विरोध भी किया।

अगर मां या पिता सिर्फ समाज के एजेंट हैं तो वे अपने बच्चों से भी यही उम्मीद रखते हैं कि वे भी समाज नाम के पहिए की तीली बन कर रह जाएं। कोई सही ढंग से अपने बच्चों को शिक्षित करना चाहेगा तो फिर वह उसे जातिवाद, धार्मिक रूढ़ियों, धर्मांधता और युद्ध की क्रूरता से परिचित कराएगा। ऐसे मां बाप नहीं कहेंगे कि उनका बच्चा किसी भी वजह से दूसरे इंसान की हत्या करे। बच्चों को आज्ञाकारिता नहीं, प्रश्न पूछना सिखाना चाहिए। प्रश्न पूछना उद्दंडता नहीं। जो मां बाप कहें, हमेशा वही सही नहीं होता। अक्सर बच्चे अपनी नई ऊर्जा और अतीत के कम दबाव के कारण जीवन को ज्यादा साफ देखने की क्षमता रखते हैं। पहले बच्चे सिर्फ घर और स्कूल तक सीमित थे। आसपास उनके दोस्त होते थे और आमतौर पर वे सभी एक ही तरह की आर्थिक-सामाजिक स्थितियों वाले होते थे। अब हालात बदले हुए हैं। अब मीडिया, इंटरनेट और टीवी के चौतरफा हमले से बच्चे खुद को कई तरह के मूल्यों से मुखातिब पाते हैं। उन पर असर डालने वाले सिर्फ उनके मां-पिता नहीं, बल्कि कई और स्रोत होते हैं।

मदर्स डे, फादर्स डे, फलाना डे, ढिमाका डे में बाजार की बड़ी दिलचस्पी होती है। यह प्रभाव मुख्य रूप से पश्चिम से आया है, जहां मां-पिता और बच्चों को एक दूसरे से मिलने के लिए भी पहले से समय लेना पड़ता है। वहां खासतौर पर एक दिन ऐसे रिश्तों का उत्सव मनाने के लिए तय कर दिया जाता है। फिर बाजार ऐसे मौकों को भुनाने के लिए टूट पड़ता है। जब ‘आर्चीज’ और ‘हॉलमार्क’ के कार्ड नहीं थे, तो प्यार का इजहार कैसे होता था? एक दूसरे को भौतिक उपहार देना तो अक्सर प्यार और समय न दे पाने की अवस्था की क्षतिपूर्ति होती है। प्रेम के बीच सामान के लेन-देन की क्या भूमिका होती है? संबंधों में लेन-देन की क्या जरूरत?

यह सब बड़े पैमाने पर पिछले बीस वर्षों से शुरू हुआ है और दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। प्रेम संबंधों में तो हर दिन एक उत्सव है, रोज एक दूसरे की फिक्र है, न कि बाजार द्वारा तय किए गए किसी खास दिन एक दूसरे पर प्यार उंड़ेलने को लोग मचलते हैं। मानवीय भावनाएं किसी खास दिन उमड़ें और वह दिन हर वर्ष पहले से ही तय हो, ऐसा नहीं होता। मां, पिता, प्रेम, शिक्षक वगैरह के नाम पर दिन तय होते हैं और चांदी काटता है बाजार।