सुधीर विद्यार्थी
जनसत्ता 23 सितंबर, 2014: लखनऊ के निशातगंज कब्रिस्तान में अपनी मां और बहन सफिया के बीच सोए मजाज़ से बातें करने के लिए पहुंचने वाले लोग अब बहुत कम हैं! कोई उधर से गुजरता है तब भी सामने ‘मजाज़ लखनवी मार्ग’ के धुंधले पड़ चुके हर्फों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। मजाज़ की कब्र अब बहुत उदास है। चारों तरफ बेशुमार झाड़ियों का विस्तार और सन्नाटा बुनती हवाओं की सांय-सांय। मजाज़ के मरने के कुछ अरसे बाद तक यहां उन्हें याद करने की रस्मअदायगी होती रही। मगर अब यहां कोई दीया जलाने नहीं आता, न फातिहा पढ़ने। उनकी कब्र के पीछे लगे पत्थर पर इस इबारत को आज भी साफ पढ़ा जा सकता है- ‘अब इसके बाद सुबह है और सुबह नौ मजाज़/ हम पर है खत्म शामे गरेबां लखनऊ।’ इस शहर में कभी इन्हीं मजाज़ की लोकप्रियता का आलम यह था कि कॉलेज की बहुत सारी लड़कियों की ख्वाहिश थी कि वे अपने बेटे का नाम मजाज़ रखेंगी। लेकिन आज मौजूदा स्त्री-विमर्श के बीच भी मजाज़ का यह शेर शायद बहुत कम लोगों को याद होगा- ‘तेरे माथे पर ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन/ तू इस आंचल को एक परचम बना लेती तो अच्छा था।’
मैं मजाज़ की खामोश कब्र के सामने खड़ा इस शायर की जिंदगी और मौत दोनों को शिद्दत के साथ याद करता हूं। वे फैजाबाद के रुदौली कस्बे में पैदा हुए। यहीं पढ़ाई शुरू की और लखनऊ आ गए। इसके बाद पिता के साथ ही आगरा। फानी बदायूंनी से यहीं मुलाकात हुई। इसी शहर में 1930 के आसपास अदब की ओर उनका झुकाव हुआ। पिता की नौकरी के तबादले के साथ अलीगढ़ आने पर अली सरदार जाफरी, इस्मत चुगताई, मंटो, हयात अंसारी, जां निसार अख्तर से आमना-सामना और नजदीकियां बढ़ती गर्इं और उनकी शायरी भी परवान चढ़ती रही। वे आकाशवाणी से जुड़े और अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफीन से भी। कुछ दिनों तक उन्होंने दिल्ली की हार्डिंग लाइब्रेरी में भी काम किया। लेकिन नौकरी की पाबंदियां उन्हें रास नहीं आर्इं और उन्होंने खुद को शायरी को समर्पित कर दिया।
साहित्य की दुनिया में 1936 से प्रगतिशीलता का जो दौर शुरू हुआ, उसने हिंदी और उर्दू कविता को दूर तक प्रभावित किया। अदब के जरिए बदलाव का हसीन सपना देखा जाने लगा। जिंदगी के प्रति नजरिए में तब्दीली आई। पर मजाज़ बेबाकी से कहते रहे- ‘बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना/ तेरी जुल्फों का पेच-ओ-खम नहीं है।’ फिर भी इंकलाब पैदा करने की उनकी जद्दोजहद में कोई कमी नहीं आई। वे अपनी शायरी से सामाजिक गैरबराबरी और सांप्रदायिकता के खिलाफ निरंतर संघर्ष का पैगाम देते रहे। इस क्रांतिकारी शायर का शराब से भी बेपनाह नाता रहा। कहा जाता है कि उनकी मौत भी लालबाग के एक होटल की छत पर पीने के बाद वहीं पड़े-पड़े हो गई और किसी को पता भी नहीं चला। वह पांच दिसंबर 1955 की सर्द रात थी, जब उनके दिमाग की नसें फट गई थीं।
बात थोड़ी पुरानी है जब लखनऊ के एक जलसे में मुझे अचानक मजाज़ के भाई अंसार हरवानी और उनकी बहन हमीदा मिल गए थे। उस रोज एक हिंदी और उर्दू की मिली-जुली मजलिस में मैं क्रांतिकारी शिव वर्मा की तकरीर सुनने पहुंचा था। शिव दा ने कहा- ‘अंसार मेरे जेल के साथी रहे हैं। आज उनके हसीन चेहरे पर झुर्रियां तैर आई हैं। लेकिन अंसार भाई को याद रखना चाहिए कि क्रांतिकारी कभी बूढ़ा नहीं होता, न थकता है। आओ, अभी देश का बहुत काम पड़ा है करने को।’ तब अंसार भाई भी बोले तो बोलते ही गए। थोड़ी देर को तो मैं भूल ही गया कि उनके शब्दों का अर्थ क्या है। मैं तो देर तक उनके और हमीदा बहन के चेहरे पर मजाज़ को ही पढ़ने-ढूंढ़ने की कोशिश में लगा रहा। मेरी आंखें बार-बार मजाज़ के तीखे नाक-नक्श अंसार भाई के चेहरे में ही खोजती रहीं। गोया मैंने उस रोज मजाज़ को ही पा लिया हो!
मजाज़ लखनऊ की गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रतीक थे और अपने जमाने में हिंदी और उर्दू दोनों में समान रूप से उनके चाहने वाले थे। उनकी मशहूर नज्म- ‘ए गमे दिल क्या करूं/ ऐ वहशते दिल क्या करूं’ आज भी हमारे कानों में गूंजती है। अब तो अदब की दुनिया के लोग भी लखनऊ पहुंच कर मजाज़ को याद नहीं करते। यह दर्ज रहेगा कि प्रगतिशील लेखक संघ के 1986 में लखनऊ में हुए पचास साला जलसे में उर्दू के इस क्रांतिकारी शायर का किसी ने नाम भी नहीं लिया था, जबकि तरक्कीपसंद शायरों की कतार मजाज़ के बिना पूरी नहीं होती। लखनऊ की शान रहे इस लोकप्रिय शायर की कब्र पर आज चंद सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट के सिवा कुछ नहीं है। सन्नाटा बुनती हवाएं ही कुछ गुनगुनाती हैं, सो उसे भी सुने कौन!
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