संगीता कुमारी
घरों में सूराख नहीं हो तो क्या धूल नहीं घुसती? व्यक्ति लाख खिड़की-दरवाजे बंद कर ले, फिर भी किसी न किसी रास्ते से घर के भीतर धूल आती ही है। इसके बाद हम सफाई कर उसे घरों से दूर भी करते हैं। तमाम इंतजाम करने के बावजूद प्रकृति के इस बारीक खेल से हम बच नहीं पाते हैं। इसके बावजूद हम यह कह सकने की हालत में हैं कि मनुष्य ने अपनी सुविधा के मद्देनजर कुछ ऐसी चीजों का भी आविष्कार कर लिया है जिनसे अब उसे छुटकारा पाने के लिए अनेक उपाय करने पड़ेंगे। आसपास नजर दौड़ाने पर इस तरह का एक सबसे ज्यादा दिखने वाला पदार्थ है प्लास्टिक, जो बेतहाशा बढ़ते हुए अनेक छोटे-छोटे रूपों में हमारे जीवन में इतना ज्यादा घुलमिल गया है कि फिलहाल हम उसके बिना अपना काम निपटाने की कल्पना नहीं कर पाते हैं।
रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाले पॉलीथिन की तो बात ही दूर है, जिसे हम आमतौर पर इस्तेमाल के बाद फेंक देते हैं। इसके अलावा, कुर्सियां, टेबल, खिलौने, बर्तन, डिब्बे, पाइप, टंकी, बाल्टी, खाट आदि सब टिकाऊ प्लास्टिक के रूप में हमारी जिंदगी में शामिल हो चुके हैं। राशन के लगभग सभी सामानों की अथाह पैंकिंग आदि करने के लिए भी हम प्लास्टिक के मोहताज हैं। हर दिन ये वस्तुएं फैक्ट्रियों से बाजार और बाजार से हमारे घरों तक का सफर तय करती हैं। जरा सोचिए कि हमने कितनी बार सोचा कि ये सभी वस्तुएं हमारे घरों से बाहर निकल कर कूड़े के रूप में कहां तक सफर तय करेंगी?
आमतौर पर कचरे और गंदगी के लिए हमारा समाज उन तबकों को जिम्मेदार ठहरा देता है, जिनके बारे धारणा है कि वे ‘गंदी जगहों’ पर रहते हैं। लेकिन सच यह है कि शहरों की बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करने वाले पढ़े-लिखे युवाओं का भोजन भी प्लास्टिक की थाली में होता है। क्या यह किसी विडंबना से कम है? प्रकृति के साथ जीने वाले ऐसे प्लास्टिक-निर्भर युवाओं के पूर्वज भी सोचते होंगे कि कहां से कहां पहुंच गई हमारी पीढ़ी! धनी तबकों में शौक रहे सोने-चांदी तो बाकी समाज में कांसा, पीतल, स्टील से दूर होकर अब प्लास्टिक के बर्तनों में भोजन करते हैं हमारे बीच के युवा। कई बार सोचती हूं कि हर दिन लाखों प्लास्टिक की थालियों और कप-ग्लास का ढेर कहां जाकर इकट्ठा हो रहा होगा! उस ढेर से हमारी प्रकृति को कितना नुकसान हो रहा है? मुश्किल यह है कि इसकी मार हम पर कई बीमारियों के रूप में पड़ रही है, लेकिन हम सोचने को तैयार नहीं हो रहे। मगर हम सभी को अब गंभीरता से सोचना होगा। शिक्षा केवल पल को जीना नहीं है। भविष्य को संवारना भी है।
कहने को हमारी प्रगति बहुत हुई है। यह सच है कि हमने कपड़े, कागजों से अपना पीछा छुड़ा कर पॉलीथिन का दामन थाम लिया है। करीब पच्चीस-तीस वर्ष पहले तक हम इस पॉलीथिन की आधुनिकता से अनभिज्ञ थे। समाज के चंद उच्च कहे जाने वाले तबकों के लोग ही सुंदर दिखने वाले पॉलीथिन का उपयोग करते थे। लेकिन इसकी कीमतें गिरीं और इसकी पहुंच हर जगह हो चुकी है। अब ये निचले स्तर तक मैकाले के सिद्धांत की तरह फैल गया है। अंग्रेजी शब्दों की तरह सभी लोग जरूरत नहीं होने पर भी इसका उपयोग करने के आदी हो गए हैं। यह बेवजह नहीं है कि जगह-जगह पॉलीथिन के कूड़े के विशाल ढेर में जानवरों को मुंह मारते हुए देखा जा सकता है। लेकिन यह मनुष्य के लिए उससे ज्यादा घातक साबित हो रहा है।
बहरहाल, जानवरों के प्रति हमारी संवेदना जागी। हमें लगा कि कूड़े के ढेर में पॉलीथिन नहीं होना चाहिए। हमने जोर से आवाज लगाई। हमारी बुलंद आवाज सरकार के कानों तक पहुंची और परिणामस्वरूप आज जगह-जगह पॉलीथिन की जगह कपड़े के थैले का उपयोग करने पर जोर दिया जा रहा है। कुछ राज्यों में इस पर पाबंदी लगी और वहां अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, फुटपाथ-पटरी वाले लगभग सभी दुकानदारों पर पॉलीथिन के इस्तेमाल पर जुर्माना लगाया जा रहा है। ऐसा प्रतिबंध लगने पर ग्राहक अपने साथ थैला लेकर ही जाएगा।
सोचने वाली बात यह है कि हम जानवरों के लिए संवेदनशील बनते जा रहे हैं, लेकिन मनुष्य अपने लिए कब संवेदनशील बनेगा? जानवर प्लास्टिक में फेंका भोजन न खाए, इसका इंतजाम हमने कर लिया, मगर मनुष्य हर दिन प्लास्टिक की थाली में सुबह-शाम भोजन कर रहा है, उसका क्या? हम प्रकृति को हर दिन टनों प्लास्टिक का ‘भोजन’ करा रहे हैं, वह भी तो रुकना चाहिए। जितना प्लास्टिक का सामान बाजार से घरों में आता है, वह कूड़ा बन प्रकृति की गोद में ही जाता है। अभी भी समय है और हम मनुष्यों को सचेत हो जाना चाहिए। भविष्य में ऐसा न हो कि हमारी भावी पीढ़ी अनाज उगाने के लिए प्लास्टिक-रहित भूमि के लिए तरस जाए!