संतोष उत्सुक

इंसान की जिंदगी के साथ अनेक तरह की भूख जुड़ी हुई है। अधिकतर लोगों की पूरी जिंदगी भूख मिटाने की भागमभाग में ही फना हो जाती है। ऐसा माना जाता है कि इंसानी शरीर की प्राथमिक जरूरतों में सबसे पहले पेट की भूख का जिक्र आता है। उसके बाद तन को कपड़े से ढकने की भूख और शरीर को आश्रय दिलाने की भूख आती है। कहा भी गया है- ‘पापी पेट का सवाल है।’ पेट की भूख मिटाने के लिए सामर्थ्य के अनुसार सब मेहनत करते हैं। नौकरी, व्यवसाय, मजदूरी, चोरी, लूट, चापलूसी या भीख- सब में मेहनत चाहिए। देश के कुछ लोगों में पैसा कमाने की भूख बढ़ती ही जाती है। आबादी के एक बड़े तबके को आज भी एक वक्त का भरपेट खाना नसीब नहीं होता। उनकी भूख मिटाने के लिए हर सरकार जूझती रहती है। मगर भूख है कि अब राष्ट्रीय हस्ती हो चली है, जिसे मिटाना मुश्किल हो गया है।

उधर पेट के भूखों की संख्या कम होती नहीं दिखती, इधर इंसानी जिस्म के भूखे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। शारीरिक भूख से परेशान लोगों के स्त्री के खिलाफ अपराध की घटनाएं निरंतर खबरों में रहती हैं। यह एक कड़वा सच है कि निर्भया के बलात्कार और उसकी हत्या की बर्बर घटना के बाद उभरे देशव्यापी आंदोलन के बावजूद शारीरिक और मानसिक रूप से दूसरों के शरीर के भूखे लोगों की तादाद कम होती नजर नहीं आ रही है। हाल में हरियाणा में एक लड़की के साथ वैसी ही बर्बर घटना सामने आई, जैसी बर्बरता निर्भया के खिलाफ की गई थी। सामूहिक बलात्कार तो अब ऐसा हो गया है जिसके लिए असामाजिक और विकृत मानसिकता वाले लोग मानो हमेशा टोह में रहते हैं। दुर्घटना के बाद खबर छपती है। सोशल मीडिया पर कोरी संवेदनाओं के शब्द आपस में बांट लिए जाते हैं, मानो एक-दूसरे के प्रति सामाजिक जिम्मेदारी पूरी कर ली गई। सरकार हमेशा की तरह बेहद सख्त कानून बना कर या कार्रवाई करने का भरोसा देकर औपचारिकता निभा देती है। अफसोस यह है कि आम लोगों के लिए कानून अक्सर किताबों का हिस्सा होते दिखते हैं। इनका कार्यान्वन आज भी पारंपरिक भारतीय कछुआ चाल से किया जाता है। किसी हिम्मती पीड़ित की शिकायत पर अमल हो भी जाए तो मुजरिम कुछ समय बाद कानून की खिचड़ी पका कर छूट जाता है। हमारे देश के समझदार नेताओं के बयान ऐसी घटनाओं को कम करने में कोई भूमिका निभाते नहीं दिखते हैं। असली बात यह है कि वास्तविकता के धरातल पर कठिनाइयां ज्यों की त्यों खड़ी हैं। दूसरी ओर, अनेक घटनाओं का पता भी नहीं चलता। हिम्मती होना सबके बस में नहीं है। पारिवारिक संस्कार और मजबूरियां भी रोकती हैं।

देश में निरंतर बढ़ते मामलों को समग्र रूप से केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक नजरिए से भी देखा जाना बेहद जरूरी है। सच यह है कि आज शारीरिक भूख को अपराध करके भी पूरा करने वालों की तादाद बढ़ रही है। उनकी अपनी जिंदगी, परिवार और समाज में कुछ तो ऐसा हो रहा है कि उनके लिए छेड़छाड़, कुकर्म, सामूहिक बलात्कार के लिए सौ साल की वृद्धा, तीन साल की बच्ची, कैंसर पीड़ित, गरीब या लाचार लड़कियां और महिलाएं मात्र एक वस्तु बन कर रह गई हैं। मानव शरीर के लिए यौन-गतिविधियां प्राकृतिक, स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक, जैविक और भौतिक आवश्यकता हैं। अगर इस मसले पर कोई व्यक्ति शरीर के साथ-साथ मानसिक रूप से भी स्वस्थ और सहज है तो वह अपना काम अधिक तन्मयता से कर पाता है। लेकिन जो लोग इसे लेकर कुंठा से ग्रस्त हैं, उनका विकार कई बार विक्षिप्त विकृति का रूप ले लेता है। आज के स्मार्टफोन कहे जाने वाले मोबाइलों में अश्लीलता की आसान पहुंच भी इस मानसिकता को बढ़ावा दे रही है।

गौरतलब है कि किसी बीमारी के अधिक फैलने पर उसका संजीदा इलाज लाजिमी होता है। इस विषय और संदर्भ में योजनाएं, बैठकें और बातें ज्यादा की जाती हैं, जिनसे ज्यादा कुछ संभव नहीं हो पाता। अब समय आ गया है कि सरकार नितांत व्यावहारिक कदम उठाए। वक्त की नजाकत के मद्देनजर समाज और सरकार को मिल कर गहन विचार कर इस बढ़ती बीमारी को ठीक करने के लिए पूरी तरह से व्यावहारिक कदम उठाने चाहिए, जिससे सभ्यता के दायरे के बीच स्त्री की अस्मिता की रक्षा हो। लेकिन सवाल है कि इस समस्या की गंभीरता को समझने के बावजूद आखिर सामाजिक विकास के मोर्चे पर हमारी सरकारों और समाज को कोई ठोस पहल करने की जरूरत क्यों महसूस नहीं होती! क्या पितृसत्ता से उपजा मानस और उससे कायम सत्ता का मोह इतना गहरा है कि अपनी ही आधी आबादी की त्रासदी पर गौर करना जरूरी नहीं लगता? इस मानस में जी रहे समाज को आखिर किस पैमाने से सभ्य कहा जाएगा!