हाल ही में आजमगढ़ जाना हुआ था। शहर के नाम से भी पहचाने जाने वाले कैफ़ी आजमी और उनकी बेटी शबाना आजमी को कौन नहीं जानता! यों आजमगढ़ से तीस किलोमीटर दूर ही राहुल सांकृत्यायन का गांव कनैला है। प्रेमचंद का गांव लमही भी। दुनिया भर के लेखक अपने इन ‘तीर्थस्थलों’ को देखने आते रहते हैं। दरअसल, आजमगढ़ में पंद्रहवें पुस्तक मेले में बच्चों के लिए कहानी सुनाने और लिखने की कार्यशाला का आयोजन था। यह मेला अल्लामा शिब्ली के बनाए कई कॉलेजों और शिब्ली एकेडमी के भव्य परिसर के आसपास आयोजित किया जाता है। एकेडमी में बेशुमार दुर्लभ पांडुलिपियां, बड़े-बड़े लोगों के पत्र और लगभग दो लाख किताबें हैं। यहां के लोग चाहते हैं कि इन दुर्लभ पुस्तकों और पांडुलिपियों का हिंदी में अनुवाद हो, ताकि इनकी पहुंच का दायरा बढ़े। यहां से एक पत्रिका ‘मारीफ’ भी निकलती है। यह भी सौ वर्ष की हो चुकी है।
खैर, कहानी सुनने और लिखवाने का काम शुरू हुआ था। उसके बाद कहानी पर बातें हुर्इं- कैसे लिखें, कैसे चित्र बनाएं। इसमें सिर पर हिजाब पहने, मुंह ढके लड़कियों की बड़ी संख्या की भागीदारी थी। यह देख कर आश्चर्य होता था कि लड़कियां ध्यान से बातें सुनती थीं और अधिकतर लड़के या तो शोर मचा रहे थे या अपने-अपने मोबाइल फोन में व्यस्त थे। बच्चों से कहा गया था कि वे जो चाहें लिखें और चित्र बनाएं। सभी लड़कियों-लड़कों ने कागज-पेन उठा लिये थे। जो बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी, वह यह थी कि कहानी शुरू कहां से और कैसे करें… क्या वे लिख भी पाएंगे…! जब उन्हें बताया जाता कि कोई भी ऐसी घटना, जिसे वे भूल न पाए हों, जिसने उन्हें प्रभावित किया हो, किसी पशु-पक्षी की कोई हरकत, जिससे वे आनंद से भर उठे हों, किसी फूल का ऐसे खिलना कि वह याद रह गया हो, दादी-नानी की कोई ऐसी कहानी, जिसे वे बार-बार सुनना चाहते हों, किसी दोस्त की ऐसी कोई बात कि वे खिलखिला उठे हों या कोई कहावत-पहेली, जिसके सुनते ही उन्हें कोई घटना याद आ गई हो, यानी कहानी का मैदान इतना बड़ा था कि उस पर कहीं से कहीं तक, कभी भी सरपट दौड़ा जा सकता है। कहीं कोई रुकावट नहीं। लड़कियां बार-बार पूछने आती थीं। उनमें से कइयों ने कहा कि वे कहानी लिखना सीखना चाहती हैं। वे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू यानी जिसे जो भाषा आती थी, उसमें लिख रही थीं, चित्र बना रही थीं। एक-दूसरे को दिखा कर राय ले रही थीं।
जब यह प्रतियोगिता खत्म हुई तो इतनी प्रविष्टियां आर्इं कि गिनती मुश्किल थी। इनमें कहानियां, कविताएं, यात्रा वृत्तांत, चित्र सभी थे। आखिर में बहुत-सी लड़कियां मंच के आसपास आ गर्इं। उनकी आंखें सितारों की तरह चमक रही थीं। चेहरे पर दमकती हुई हंसी थी। वे अपने मोबाइल से अतिथियों का फोटो लेना चाहती थीं, आॅटोग्राफ मांग रही थीं।पर्दे में रह कर पढ़ने वाली इन बच्चियों की जिज्ञासाएं अनंत थीं, जो उनके पास के नोटबुक के रूप में प्रकट हो रही थीं। इनमें से कुछ जिज्ञासाएं थीं कि आपका फोन नंबर, मेल-आइडी क्या है, कौन-सा हीरो और फिल्म पसंद है। आपका पसंदीदा पर्यटन-स्थल कौन-सा है, आपका रोल मॉडल कौन है, आपका जन्मदिन किस तारीख को है और आप किसके साथ डेट पर जाना चाहेंगी। यानी ये लड़कियां देश-दुनिया से वाकिफ थीं। ये आधुनिक तकनीकों के साथ सहज भी थीं, कंप्यूटर और मोबाइल का इस्तेमाल अच्छी तरह जानती थीं। ये अपने विचार प्रकट कर सकती थीं, इनका हाथ अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में तंग नहीं था। मौका मिले तो अपनी बात कह सकती थीं।
जब उन्हें अपनी बात कहने के लिए मंच पर आमंत्रित किया गया तो मरियम नाम की एक लड़की माइक पर आकर आह्वान करने लगी कि दूसरे बच्चे भी वहां आकर अपनी बातें कहें। उसने कहा कि कुछ साल पहले जब वह मंच पर बोलने आई थी, तब उसके हाथ-पांव कांप रहे थे, मगर अब उसे माइक और हॉल में बैठे बहुत सारे लोगों से डर नहीं लगता। वह अपनी बात बिना घबराए कह सकती है। मरियम से सभी बच्चे सहमति जता रहे थे। मरियम ने यह भी कहा कि हम आजमगढ़ के हैं, इसलिए आजमी हुए। जाहिर है, इशारा शबाना आजमी, कैफी आजमी और शौकत आजमी की तरफ था।इन बच्चियों को देख कर यही लगा कि अगर बच्चों को मौका मिले, उन्हें अपनी बात कहने की आजादी हो तो वे बहुत कुछ कर सकते हैं। खासतौर पर लड़कियां तो जैसे बहुत कुछ सीखना चाहती थीं। वे न केवल लेखिका, बल्कि डॉक्टर, इंजीनियर, सॉफ्टवेयर तैयार करने वाली, अध्यापिका, पत्रकार, डिजाइनर और न जाने क्या-क्या बनना चाहती थीं। अब यह जिम्मेदारी उन बड़ों को निभानी है जो इन लड़कियों के अभिभावक हैं। वे इनके सपनों को फलने-फूलने का मौका दें। उनके रास्ते में जो भी दीवारें खड़ी हैं, उन्हें गिरा दें और कोई नई दीवार जो इन लड़कियों का रास्ता रोकती हो, उसे बनने ही न दें।

