सरस्वती रमेश

जाड़े की धूप कांस के फूल-सी मुलायम और बच्चों की हंसी की तरह चंचल होती है। एक चम्पई खयाल के जैसी खूबसूरत और सुखद होती है। किसी स्त्री की मासूम कामना की तरह चंचल धूप की नदी आसमान के हिमालय से धरती पर छन्न से उतरती है। जैसे धूप धूप न हो, बादलों के शामियाने से छन कर आई कोई दुआ हो जो हम पर समान रूप से बिखर गई हो।

सर्दियों में सारी सृष्टि धूप की ऐसे प्रतीक्षा करती है, जैसे कोई बेकल प्रेमिका या प्रेमी अपने साथी की दूर देश से लौटने की प्रतीक्षा करते हैं। सुबह-सुबह उठ कर जब हम अपने कमरे की खिड़की खोल कर खुली बांहों से धूप का स्वागत करते हैं तो अपने जीवन में नई चेतना और उल्लास को आमंत्रित करते हैं। सच यह है कि हम इस धूप का इंतजार करते हैं… और उससे भी आगे उसे खोजते हैं।

कभी मन की आंखें और कान खोल कर ध्यान से देखिए और सुनिए धूप का संगीत। धूप की धरती पर उतरने की खनक। प्रकृति के साथ अठखेलियां। धूप की आहट पाकर ही तो फूल खिल जाते हैं, भंवरे गुनगुनाते हैं और तितलियां पंख फैलाती हैं। जाड़े की धूप जब रात भर ओस में भीगे गुलाब की पंखुड़ियों पर पड़ती है तो एक करिश्मा-सा जन्म लेता है। यह पृथ्वी पर कुदरत का जादू है, जिससे दुनिया अपनी आत्मा को तृप्ति के सुख से सींचती है।

बचपन के दिनों में धूप कोई सुनहरा स्वप्न बन आंगन में उतरती थी। स्वप्न, जिसमें अपनों का साथ था, बतकही थी, दुलार था और ठहाके मारती जिंदगियां थी। जब मैं छोटी थी तो अपनी छत पर खड़ी होकर डूबते सूरज को देखती थी। सामने खेत और खाली जमीन थी और दूर ताड़ के पेड़ लाइन से लगे हुए थे। उनकी पत्तियों की ओट होते ही सूरज की लालिमा मेरा मन मोहने लगती थी। देर तक एकटक उसे निहारना रोजाना के अभ्यास में शामिल हो गया था। उस वक्त मोबाइल और कैमरे सहज उपलब्ध होने का युग नहीं आया था। वरना मेरी फोटो गैलरी में डूबते सूरज की शायद सैकड़ों तस्वीरे सुरक्षित होतीं।

दरअसल, गांव और कस्बों में सुनहरी धूप हमारी सामाजिकता को बनाए रखने का बड़ा साधन है। लोग धूप में बैठ कर दुख-सुख बांटते हैं। सरकारी नीतियों पर रोष जताते हैं। रिश्ते जोड़ते हैं। औरतें धूप में बैठ कर साग काटती हैं, मटर छीलती हैं और अन्न साफ करती हैं। अधेड़ औरतों के लिए जैसे धूप नए पड़ाव का प्रेमी हो। उम्र के साथ आती हड्डियों की कमजोरी को वे इसी धूप की लाठी टेक दूर करने की भरसक कोशिश करती हैं। यह जीने के लिए जरूरी ऊष्मा देती है, मगर इसके चमकीले तार मन के विशाल जलाशय में आकर झिलमिलाते सितारे बन मन को लुभाते हैं। जैसे धूप कोई जादुई नदी है और हमारा मन उसके भीतर मचलती सुनहरी चमकीली मछली।

काम करने की जगह पर भी खाली वक्त में महिलाएं अपना दुख और सुख एक दूसरे से साझा करती हैं। बातचीत केवल कहने के लिए होती है। इसके जरिए विचार और दृष्टि की एक नई जमीन बनती है। आज कई-कई बहानों से जिस तरह लोग एक दूसरे से दूर रहने पर मजबूर हुए हैं, उसमें इस प्रकृति से तैयार होने वाले विचार की जगह खत्म-सी हो गई लगती है।

भारतीय संस्कृति में सूर्य को देवता माना जाता है। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा और ईश्वर का नेत्र बताया गया है। हम सूर्य और धूप को प्रकृति का चेहरा मानें। सूर्य जीवन, स्वास्थ्य एवं शक्ति का स्रोत हैं। पुराने समय में लोग सूर्य नमस्कार करते हुए भरपूर विटामिन-डी ग्रहण कर लेते थे। यह तो सर्वविदित है कि जहां सूर्य की रश्मियां पहुंचती हैं वहां से रोग और कीटाणुओं का नाश हो जाता है। लेकिन पिछले कुछ समय से जिस तरह लोग धूप से दूर हुए हैं, उसमें क्या उन्हें यह तथ्य याद भी होगा? कमरों में बंद होकर धूप से दूर होना रोग और कीटाणुओं के साथ कैसी स्थिति बनाएगा?

दरअसल, धूप दिवस की आत्मा है। इसलिए तो अंटार्कटिका महाद्वीप दुनिया का सबसे निर्जन द्वीप है, जहां जाड़ों के छह महीने अंधेरे में बीतते हैं। जमा देने वाली ठंड और सूर्य की रोशनी के बगैर। शायद इस अंधेरे की भरपाई करने के लिए ही सूरज गर्मियों में अगले छह महीनों तक डूबते ही नहीं।

उगते सूरज और इसकी किरणों का जादू देखने के लिए दुनिया में कई जगहें मशहूर हैं। लोग सूर्योदय का अद्भुत नजारा देखने के लिए कंचनजंघा की चोटियों पर जाते हैं। दुनिया भर में कई ऐसे स्थल हैं जहां सिर्फ अद्भुत सूर्योदय और सूर्यास्त देखने के लिए लोग हजारों किलोमीटर की यात्रा करते हैं। वैसे देखा जाए तो सूर्योदय और सूर्यास्त हर जगह खूबसूरत ही होते हैं। लेखक एंथनी जेडी एंजेलो कहते हैं कि ‘हम कहीं भी जाएं, वहां का जैसा भी मौसम हो, हमें अपनी धूप सदा साथ रखनी चाहिए।’ धूप मतलब उम्मीद, आशा और जिजीविषा। बिना उम्मीद के दुनिया शून्य है और बिना धूप के वीरान। अभी-अभी खिड़की से झांकती धूप मेरे भीतर जिजीविषा बन प्रवेश कर गई।