शचींद्र आर्य

किसी तरह यह वक्त गुजर रहा है। इसमें समझ में आने वाली कितनी सारी बातें हैं, जो समझ ही नहीं आ रही हैं। पिछले दिनों गांव से एक खबर आई। यह बात अतीत में लौटने से जुड़ी नहीं है, फिर भी इसने कई तरह से दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया। यह बात एक घटना के घटित होने और उसके प्रकाशित होने से संबंधित है। इसमें हमारे गांव के नाम को छिपाया गया और बताया गया कि एक युगल ने पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर ली। दोनों एक ही जाति के थे और दोनों के विवाह के लिए परिवार राजी नहीं हो रहे थे।

जो बात गांव से भाई ने बताई, उसमें कुछ और बातें जुड़ गईं। जैसे अंधेरा होते ही दोनों घर से निकल गए और सुबह ताल के पास एक पेड़ से दोनों की लाशें लटकी मिलीं। उसने यह भी बताया कि उस लड़के की शादी पहले हो चुकी थी। उसका विवाह कुछ साल पहले पास के गांव की एक सजातीय लड़की से हुई थी। शादी में लड़के ने पारंपरिक आबोहवा में तैयार हुए किशोर इच्छा के अनुरूप दहेज में मोटरसाइकिल मांगी, जो उसे तिलक में दे दी गई। शादी हो गई और गौने का इंतजार होने लगा।

वक्त गुजरने लगा। इस बीच लड़की वाले जब भी गौना करवाने की बात बोलते, तब लड़के वाले टाल देते। इसी में सब तरह की बातें उड़ने लगीं। कहा जाने लगा कि लड़की दिमाग से कमजोर है। लड़का अब उसके साथ नहीं रहना चाहता। उसका प्रेम प्रसंग अपने गांव की एक सजातीय लड़की से चल रहा है। ‘जितने मुंह उतनी बातें’ वाला मुहावरा ‘राई के पहाड़’ जितनी यात्रा कर चुका था।

जो बात नहीं भी होगी कहीं, उन बातों का बतंगड़ बन चुका था और कोई सुनने-समझने के लिए तैयार नहीं था। वैसे भी हम जिस भीड़ जैसे समाज में रहते हैं, उसमें एक बात जो चल पड़ती है, उसके आगे बढ़ने पर किसी का नियंत्रण नहीं रह जाता है। वह बात किस शक्ल में कैसा असर करेगी, यह इस पर निर्भर करता है कि वह किस प्रवृत्ति या समझ वाले व्यक्ति से होकर गुजरती है! सतह से देखने से लगता है कि यह एक सामान्य-सी घटना है।

अक्सर ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं और किसी को कोई फर्क इस बात से नहीं पड़ता और शायद पड़ना भी नहीं चाहिए। लेकिन सोचता हूं कि मेरे लिए सात सौ किलोमीटर दूर बैठे इस घटना को पुनर्रचित करने और उसके पीछे जाने की नाकाम कोशिश करने को किस तरह से लिया जाना चाहिए? मेरे मन में यह आत्महत्या वैसा विषय क्यों हुआ, जिस पर लिखना जरूरी समझ रहा हूं।

हो सकता है कि मेरे स्मृति-कोश में अपने गांव से जुड़ी कोई आत्महत्या ढूंढ़ने पर भी नहीं मिली। हो सकता है कि ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही हों, लेकिन वह हम तक पहुंची ही न हो। अब सोच रहा हूं कि किसी गांव या ग्रामीण अंचल को खबर बनने के लिए किन योग्यताओं को अर्जित करना होगा?

यह वही गांव है, जहां अपने पीएचडी के फील्ड कार्य के लिए आठ महीने रहने के बाद भी मुझे कभी किसी कन्याभ्रूण हत्या की बात सीधे तौर पर अनुभव में नहीं आई। ऐसा कैसे हो सकता है कि जहां लिंगानुपात इस तरह हो और उसके सार्वजनिक जीवन में उसका कोई परिलक्षण न हो! जहां परिवारों में भ्रूण हत्याओं पर एक मौन सहमति हो, वहां यही आत्महत्या किसी अखबार की सुर्खी बनी। क्या यह हमारी चिंताओं के खांचों को स्पष्ट करता है? ऐसा क्यों हुआ जब सारे देश में किसानी दशकों से घाटे में चल रही हो, जो गांव भारत के सबसे पिछड़े दस जिलों में आता हो, उस जगह से कभी किसान के आत्महत्या कर लेने की खबर कभी हमने दिल्ली में रहते हुए इतने सालों में देखी हों!

क्या यह हमारी सामूहिक चेतना को एक खास तरीके से ढालने का सिलसिला है? क्या यह एक ऐसी अदृश्य परियोजना है, जहां हमें सोचने के लिए कुछ खास तरीकों का अभ्यस्त किया जा रहा है और यह अब कुछ-कुछ दृश्य होने लगी है? जो जीवन जीया जा रहा है, जिसमें इतनी सारे क्रियाकलाप एक क्षण में घटित हो रहे हैं, उन तक हम कैसे पहुंच रहे हैं, इसे दोबारा से टटोलना शुरू कर देना चाहिए।

क्या यह इन माध्यमों से पीछे हटने का सही समय है? सवाल है, अगर हम ऐसा करते हैं, तब यह माध्यम किस तरह हमें समझ पाएंगे? हम उनसे क्या चाहते हैं? क्या वह हमसे ऐसे किसी संवाद की उम्मीद भी करते हैं? अगर वे नहीं कर रहे, तब हम अपना बिजली और पैसा खर्च करके क्यों उनकी तरह अपने संसाधन को अपने सोचने-समझने के तरीकों को उन्हें तय करने दे रहे हैं?

इन सभी प्रश्नों के उत्तर किसी प्रतियोगिता परीक्षा की तरह बहु-विकल्पीय ढांचे में नहीं आएंगे। हमें लौटना होगा और देखना होगा कि हमारा अनुभव संसार वे किस तरह से रच रहे हैं। किसी अज्ञात पूंजी का प्रवाह हमारे चिंतन को प्रभावित करे, यह हम कब तक होने देंगे? इस समय बुद्धि के व्यवस्थापक हम ही हों, यह हम तय करें और यही हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए।