सरस्वती रमेश

मनुष्य के जीवन में जुड़ाव की यह प्रक्रिया गर्भ से ही शुरू हो जाती है। पहली बार कोई बच्चा अपनी मां के गर्भनाल से जुड़ता है। यह जुड़ाव ही उसके रोम-रोम का सृजन करता है। इस प्रथम जुड़ाव को धारण कर वह बेफिक्र होकर नौ माह तक अपनी मां के गर्भ में व्यतीत करता है, जिससे इस संसार की प्रत्येक वस्तु से जुड़ने के एहसास और योग्यता को वह हासिल कर सके। जिस पल वह अपनी मां के गर्भ से निकल कर गर्भनाल से अलग होता है, बाहर की हवा से जुड़ कर श्वास लेता है, उसी पल नए स्तर पर जुड़ाव की एक अनंत यात्रा शुरू हो जाती है जो जीवनपर्यंत चलती रहती है।

जुड़ना ही सभ्यता का बढ़ना है। एक शिशु मां से जुड़ता है, परिवार से जुड़ता है और उनके स्नेह के असीमित समुद्र का सुख जीता है। एक नेता जनता से जुड़ता है और उनके समर्थन का जादुई बल हासिल करता है। एक यायावर कभी मंजिल तय करके तो कभी बिना मंजिल तय किए रास्तों से जुड़ता है, राहगीरों से जुड़ता है और यायावरी के अनोखे अनुभवों से समृद्ध होता है। एक तारिका अपनी कला को दुनिया तक पहुंचाने के लिए दर्शकों से जुड़ती है और सार्वजनिक स्तर पर प्रशंसा के अद्भुत रस को प्राप्त करती है।

एक लेखक किताबों और शब्दों की दुनिया से जुड़ता है और अपने भीतर एक नई दुनिया को रचते-बसते पाता है। एक बावर्ची खुशबू और स्वाद से जुड़ता है और तृप्ति के नए संसार से लोगों की जिह्वा को अवगत कराता है। एक डाक्टर मरीज की पीड़ा से जुड़ता है और धरती का ईश्वर कहे जाने का मान पाता है। हम जिस ईश्वर की धारणा में जीते हैं, उसमें हमारे और ईश्वर के बीच कोई डोर या फिर कोई सीढ़ी नहीं है, फिर भी हम जरा-सी पीड़ा महसूस करते ही उससे जुड़ जाते हैं। अपने आंसुओं को उस तक पहुंचाते हैं। इस तरह जुड़ाव का एक पुल निर्मित होता है जो हम सबको जीने की, साथ चलते रहने की प्रेरणा देता है।

सही है कि जुड़ना एक आभासी क्रिया है, मगर इसका प्रभाव मूर्त है। जब हम किसी से संबंध बनाते हैं तो हमारे मन में भी एक जुड़ाव घटित होता है। यह जुड़ाव जितना घनिष्ठ होता है, हमारे व्यवहार में उतना ही परिलक्षित होता है। जुड़ना और जुड़ाव हमारे भीतर सामाजिकता के बीज रोपते हैं और सामाजिकता हमें एक बेहतर इंसान बनाने में मदद करती है। कभी इंसान भी इंसान से जुड़ा होगा।

कबीले बने होंगे। खेती-किसानी के लिए लोगों ने साथ-साथ रहना प्रारंभ किया होगा और यह सिलसिला चलते-चलते आज इतना बढ़ चुका है कि दुनिया का कोई कोना अगर संकट में है तो उसका असर हर किसी की जिंदगी पर पड़ रहा है। जब चीन के वुहान में एक विषाणु ने तबाही मचाई थी तो किसने सोचा था यह पूरी दुनिया में हाहाकार मचा सकता है। चीन तो अलग देश था, जो हमारी आपकी दुनिया से दूर-दूर तक नहीं जुड़ा था। पर था तो वह इस पृथ्वी का ही हिस्सा! कहीं न कहीं हमसे जुड़ा हुआ। इसलिए हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। बावजह या बेवजह।

असल में जुड़ना एक धुरी है, जिस पर जीवन रूपी पृथ्वी चलायमान है। जुड़ाव के इस अदृश्य संसार को देखने के लिए मन की आंखें विस्फारित होनी चाहिए और तब इस संसार रूपी शाख के प्रत्येक गांठ को हम स्पष्ट रूप देख पाएंगे। जुड़ाव ने इतनी सदियों तक मनुष्य में मनुष्य के भरोसे को कायम रखा है। आज अगर हमारे संबंध, रिश्ते-नाते खतरे में हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण जुड़ाव का खत्म होना है। सिर्फ रिश्ते नाते ही नहीं, पेड़-पौधे, हरियाली, पक्षी, जानवर, कीट-फतिंगे, नदी, पहाड़, झरने सबसे इंसानों का जुड़ाव कम हुआ है।

प्रकृति से जुड़ाव स्थानांतरित होकर भौतिक वस्तुओं की तरफ मुड़ा है। इस स्थानांतरण ने एक अजीब स्थिति लाकर खड़ी कर दी है। एक ओर विकास की चमचमाती दुनिया है तो दूसरी ओर विनाश का भय। हमें बार-बार चेताया जा रहा है कि अगर पृथ्वी को बचाना है तो हमें फिर से उन्हीं चीजों से जुड़ना होगा, जिन्हें पिछड़ापन कहकर हम खारिज कर आए थे। हमें अपनी जड़ों से, सभ्यता, संस्कृति, प्रकृति और इसके आयामों से जुड़ना होगा। यह जुड़ाव ही हमारे बचे रहने का एकमात्र रास्ता है।