कालूराम शर्मा
आजकल चारों ओर एक अजीब-सा सन्नाटा छाया हुआ रहता है। इस उमस भरी गरमी की दुपहरी को चीरती एक मधुर आवाज उस सन्नाटे को तोड़ती है। यह मधुर आवाज कोयल की है। झुरमुट में से कुहू-कुहू… की मधुर तान तपती-उबालती दोपहरी में कानों में मिसरी घोल देती है। यों आप अगर अलसुबह कुदरत में तफरीह कर रहे हों तो कोयल का मधुर संगीत चहुं ओर से आपको सुनाई देगा। दरअसल, कोयल हमारे यहां का बारहमासी पक्षी है, मगर हमें इसकी आवाज बसंत और ग्रीष्म में ही सुनाई देती है। तो क्या इसकी बारहमासी गूंज को हम बाकी मौसमों में अनसुना करते हैं? नहीं, ग्रामीण जीवन में यह गूंज आम जीवन का हिस्सा होती है।

अगर कोई कोयल को निहारना चाहता है तो उसकी मधुर आवाज का पीछा करना होगा। एक दिन घनी आबादी वाले इलाके में गरमी के मौसम में कोयल की कूक फिजां में घुल रही थी। मैंने अपनी नजरों को पैना किया। पेड़ की डाली पर काले रंग की एक चिड़िया दिखाई पड़ी। कुछ शर्मिली-सी एक डाल से दूसरी डाल पर हौले से फुदकते हुए वह अपने ही आकार की चितकबरी चिड़िया के पास जाकर बैठ गई। अब तक कुछ लड़के मेरे पास आकर मेरी तरह देखने लगे। वे यह समझ गए थे कि मैं कोयल को निहार रहा हूं। वे भी वे मधुर कूक के साथ कोयल को निहारने का आंनद उठाने लगे।

मेरी तरह बहुत सारे लोग होंगे, जिन्होंने अपने बचपन में बाग-बगीचों में अठखेलियां की होंगी, उन्हें याद होगा कि कोयल की कूक के साथ हम बच्चे भी कू का स्वर जोर से निकालते थे और उसे सुन कर कोयल की और जोर से कूकने की आवाज आती थी। वह रोमांच अब भी मन में ठहरा हुआ लगता है। आज भी कोयल की मधुर कूक जब आसपास गूंजती है तो कभी मन करता है कि मैं भी जोर से उसके साथ ही कू की आवाज लगा कर कोयल को चिढ़ाऊं..!

कोयल का कूकना और आम का मौसम, ये एक महज संयोग हैं। यों कोयल का भोजन आम नहीं है। हालांकि अंतर्संबंध की तलाश मानवीय गुण है और इसी गुण की वजह से मनुष्य कई बार कोयल और कौवे के बीच भी अंतर्संबंध ढूंढ़ लेता है। दरअसल, यह एक ऐसा अंतर्संबंध है, जहां कोयल कौवे के घोंसले में अंडे देती है। यह दीगर बात है कि जीव-जगत ऐसी तमाम मिसालों से भरा पड़ा है, जहां एक दूसरे को कुदरती तौर पर पटखनी देते हैं। मगर यह इंसानों की तरह सोची-समझी रणनीति के तहत नहीं होता। यह तो उनके अंदर जन्मजात गुण होता है। ये गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होते रहते हैं। कोई किसी का शिकार करता है तो कोई किसी को अपना जबरन आशियाना बना लेता है।
कोयल और कौवे का अंडों-बच्चों की परवरिश का अंतर्संबंध विकासक्रम का नतीजा है। लेकिन जब अंतर्संबंधों की बात चली है तो यह सोचना भी लाजिमी है कि अगर कौवों की तादाद घट रही है तो क्या कोयल के वंश पर भी इसका असर होगा!

माना जाता है कि जहां कौवे घोंसले बनाते हैं, उनके आसपास नर कोयल घूमते रहते हैं। नर कोयल कौवों के घोंसले के पास जाता है, तब कौवा उसका पीछा करता है। पीछा करते हुए कौवे अपने घोंसले से दूर चले जाते हैं और मादा अपने अंडे झट से कौए के घोंसले में गिरा देती है। कई बार इस प्रक्रिया में कौवे के अंडे गिर कर फूट जाते हैं। अंडों में से जब बच्चे निकल आते हैं तो कौवे उन्हें अपना समझ कर पालते हैं। बड़े होने पर कोयल के बच्चे स्वतंत्र रूप से जीवन जीने लगते हैं। दरअसल, कोयल ने कौवे के साथ विकासक्रम में इस प्रकार का साथ साधा कि दोनों का अंडे देने का वक्त, अंडों का आकार-प्रकार आदि में बहुत समता हो।

अक्सर हम कोयल के बारे में समझते हैं कि कोयल कूकती है, यानी मादा कोयल मधुर तान छेड़ती है। लेकिन सच यह है कि नर कोयल गाता है। कोयल में नर और मादा में काफी अंतर होता है। नर कोयल चटक काले रंग का होता है। इसकी आंखें सुर्ख लाल होती है। मादा कोयल धब्बेदार चितकबरी होती है। मादा कोयल को रिझाने के लिए ही नर कूकता है। यह उनका प्रजनन काल है। मादा की आवाज तो कूक-कूक से ज्यादा लंबी नहीं होती। कोयल अन्य पक्षियों की तरह खुलेआम नहीं दिखता। ये पेड़ों और झाड़ियों की झुरमुट में छिपे रहते हैं। अगर इनके दर्शन करना हो तो पेड़ों पर इसके दो-तीन या चार या इससे भी ज्यादा जोड़े देखे जा सकते हैं।

वैसे हमारे यहां चातक और पपीहा- इन दो और पक्षियों के बिना लोक साहित्य अधूरा-सा प्रतीत होता है। लेकिन चातक और पपीहा भी कोयल की भांति घोंसला परजीवी हैं। ये भी दूसरे पक्षियों के घोंसलों में अंडे देते हैं। बहरहाल, मौजूदा दौर के सन्नाट में मुझे अपने घर के सामने पेड़ पर कोयल की मधुर तान बहुत राहत पहुंचा जाती है और मैं इसी मधुरता के स्वर के साथ भविष्य में बहुत कुछ मधुर होने की उम्मीद लगा बैठता हूं।