कुछ समय पहले की घटना है। काफी दिनों बाद एक बच्चा अपने कोचिंग में लौटा तो उसकी शिक्षक ने चिंता जाहिर करते हुए पूछा कि ‘कोविड की वजह से इतने दिन तक तुम अकेले रहे। सबसे कटकर बहुत खराब लगा होगा और बोरियत हुई होगी!’ तब उस बच्चे ने कहा कि ‘नहीं, मैं तो बहुत खुश था… मेरे सारे ‘गैजेट’ मेरे पास थे। मेरा समय बहुत अच्छा बिना दोस्तों के निकल जाता था। बल्कि मुझे दोस्तों की जरूरत भी महसूस नहीं हुई।’
बच्चे के ऐसे जवाब को सुन कर शायद कोई भी संवेदनशील व्यक्ति हैरान ही होगा। तकनीकों का इस्तेमाल हमारे जीवन में इस हद तक दखल दे चुका है कि अब इंसान को दूसरे इंसान की ज्यादा जरूरत नहीं रही। आपस में मिल बैठकर गपशप करने की जरूरत खत्म होती जा रही है।
खरीदारी से लेकर मिलना-जुलना भी वीडियो काल से हो रहा
महामारी से बचाव के लिए लगी पूर्णबंदी के बाद अब स्थिति यह है कि घर के सामान की खरीदारी से लेकर लोगों से मिलना-जुलना भी स्मार्टफोन के वीडियो काल से हो जाता है। हद तो यह है कि एक ही घर के सारे सदस्य एक दूसरे से ज्यादा बात नहीं करते। वे साथ बैठकर भी अपने-अपने मोबाइल फोन में मशगूल रहते हैं। घर के किसी सदस्य की मन की बात जानने या समझने के बजाय वे सोशल मीडिया पर हजारों किलोमीटर दूर किसी से बात करने को ज्यादा प्राथमिकता देने लगे हैं।
विडंबना यह है कि बच्चों पर इसका बहुत ज्यादा असर पड़ रहा है। वे तकनीक संचालित करना जानते हैं, लेकिन रिश्ते और भावनाएं वे एकदम नहीं नियंत्रित कर पाते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे बच्चे जो सामाजिक रूप से पूरी तरह कटते जा रहे हैं, वे किसी बुरी स्थिति के आने पर अवसाद में चले जाते हैं। मादक पदार्थों आदि का सहारा लेते हैं या कई बार आत्महत्या तक कर लेते हैं। बहुत बार बच्चे चाहते हैं कि उन्हें कोई सुने, उनकी काउंसिलिंग करे, लेकिन माता-पिता काम के बाद अपने फोन या इंटरनेट की दुनिया में व्यस्त हो जाते हैं।
बच्चों के जीवन में आ गई है गतिहीनता
दरअसल, बच्चों के जीवन में बहुत ज्यादा गतिहीनता आ गई है। वे बाहर खेलने नहीं जाते हैं। महामारी के दौरान पढ़ाई भी आनलाइन थी। पढ़ाई के बाद भी वे फोन में ही तरह-तरह के गेम खेलते या वीडियो देखते हैं। अब लोग कहीं वास्तविक रूप से भी जाते हैं तो ‘रील’ बनाने या फोटो साझा करने के दबाव में उस जगह पर पूरी तरह से नहीं होते हैं।
एक परिचित की बेटी तकनीकी में इतनी तेज है कि वह कई ऐप बना चुकी है, कोडिंग में उसे महारत हासिल है। लेकिन जब उसका प्रेम संबंध टूटा तो गहरे अवसाद में चली गई। उसे नहीं समझ आ रहा था कि इस बारे में किससे बात करे। उसके अभिभावक अपने फोन में व्यस्त रहते थे। वह कुछ कहने या बताने की कोशिश करती भी तो उसकी बात को अहमियत नहीं मिलती। आखिर जब वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई, तब उन्हें समझ आ सका कि वे क्या गलती कर रहे थे।
लोगों में बढ़ते अकेलेपन को लेकर जो अध्ययन सामने आए हैं, उनमें मुख्य बात है कि अकेलापन हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर देता है। हृदयाघात, मधुमेह, डिमेंशिया आदि का शिकार होना आम होता जा रहा है। अमेरिका की एरिजोना विश्वविद्यालय में हुए शोध से यह बात सामने आई है कि तकनीकी पर ज्यादा निर्भरता, खासकर स्मार्टफोन ने हमारे व्यवहार का तौर-तरीका बदल दिया है। युवाओं में अवसाद बढ़ने की सबसे बड़ी वजह यही है।
यह शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही भावनात्मक रूप से भी उनके लिए बहुत ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रहा है। स्मार्टफोन पर बहुत ज्यादा निर्भरता ने उन्हें ‘फोमो’ से भी ग्रसित कर दिया है। ‘फोमो’ एक ऐसी स्थिति है, जब किसी व्यक्ति के पास मोबाइल न हो तो उसे दुनिया से अलगाव का एक भय महसूस होगा। ऐसा लगेगा कि बहुत कुछ घटित हो रहा है और वह उसका हिस्सा नहीं बन पा रहा है। यही भय है जो हर वक्त हाथ में फोन होने पर लोग बेवजह स्क्राल करते या उस पर अंगुलियां चलाते रहते हैं।
इस काल्पनिक भय ने लोगों को वास्तविक दुनिया से अलग-थलग करना शुरू कर दिया है। अब हर व्यक्ति की एक ‘ई-पहचान’ भी है, जिसे हर समय वह ज्यादा बढ़ाना चाहता है। सोशल मीडिया पर कितने दोस्त और फालो करने वाले हैं, यह भी अब एक हैसियत का प्रतीक बन चुका है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा वक्त सोशल मीडिया को देकर अपने ‘ई-व्यक्तित्व’ को और ज्यादा बड़ा करने की होड़ लगी है। जबकि आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध के अनुसार करीब डेढ़ सौ सोशल मीडिया दोस्तों में से वास्तविक जरूरत पड़ने पर सिर्फ चार लोग ही मुश्किल से मिल पाते हैं।
सही है कि पूर्णबंदी के समय तकनीकी ने लोगों की बहुत सहायता की। लोग फोन और इंटरनेट के माध्यम से दुनिया से जुड़े रहे थे। लेकिन तकनीकी पर निर्भरता बढ़ जाना एक खतरनाक संकेत है। मनुष्य का विकल्प तकनीक कभी नहीं हो सकती है। जब कोई वास्तविक समस्या हमारे सामने होगी या भावनात्मक रूप से हम विचलित होंगे तो हमें अपनी सहायता के लिए कोई वास्तविक मनुष्य ही चाहिए होगा।
