आमतौर पर जब हम किसी घर या मकान को देखते हैं तो उसकी विशालता या फिर उसके बाहरी सौंदर्य को ही देख रहे होते हैं। किसी के लिए उसका विशाल आकार का होना आकर्षण का केंद्र होता है तो कोई उसकी नक्काशी से मोहित होता है। इसी तरह किसी के लिए पसंद या नापसंद का आधार उसका रंग होता है। कहने का भाव यह है कि प्रथम दृष्टया हम उस मकान के भौतिक संसार में घूम रहे होते हैं और इन्हीं भौतिकताओं के आधार पर उसके बारे में कोई राय तैयार करते हैं। पर इसके अतिरिक्त इस मकान की एक संस्कृति भी होती है। बल्कि यह संस्कृति ही इसकी बुनियाद होती है, जिसके तहत इसका भौतिक ढांचा निर्मित होता है।
दरअसल, किसी रिहायशी मकान के बनने में वहां के भूगोल और वहां की संस्कृति सबसे अहम भूमिका निभाती है। इसमें भौगोलिक-पर्यावरणीय कारणों के बारे में तो हम पाठ्य-पुस्तकों से लेकर अन्य जगहों पर भी लगातार पढ़ते हैं, मसलन अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में छत को ढालनुमा बनाया जाता है, ताकि बारिश का पानी न जमा हो जाए। इसी प्रकार भूकम्प से प्रभावित क्षेत्रों में हल्के मकान बनाए जाते हैं, ताकि वो भूकम्पीय झटकों के हिसाब से समायोजित हो जाए। ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं, लेकिन इसके सांस्कृतिक पक्ष पर थोड़ी कम चर्चा होती है, जबकि यह एक ऐसा संकेतक है, जिससे हम किसी समाज में आ रहे मूल्यगत परिवर्तन को आसानी से पहचान सकते हैं।
हर जगह की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है जो वहां के जीवन मूल्यों को निर्धारित करती है। ये मूल्य ही वे आधार होते हैं, जिन पर बाहरी संसार की क्रियाएं टिकी होती हैं। इसलिए भवन निर्माण भी इन मूल्यों के प्रभाव से अछूता नहीं होता। हां, इतना जरूर है कि यह प्रक्रिया इतनी स्वाभाविक होती है कि उस पर ध्यान नहीं जाता है। यहां अगर हम दो संस्कृतियों के उदाहरण के रूप में गांव और शहर को लें तो यहां के भवनों में ‘मूल्यगत अंतर’ की पहचान की जा सकती है। दरअसल, शहरी समाज एक संश्लिष्ट मानवीय संबंधों पर आधारित सामाजिकता को रचता है जहां औपचारिक संबंध प्राथमिक होता है। यहां पड़ोसी से लेकर सहकर्मी तक से अमूमन नातेदारी का कोई संबंध नहीं होता। इसलिए औपचारिक और द्वितीयक संबंधों के सहारे ही मेल-जोल बढ़ता है।
इस हिसाब से शहर एक ‘बंद सामाजिक’ संबंधों वाली जगह है, जहां एक निश्चित और मजबूत दूरी का बने रहना संबंधों के टिके रहने की प्राथमिक शर्त है। दूसरी तरफ गांव का समाज एक खुला समाज है और वहां अधिकतर लोग एक दूसरे से किसी न किसी प्रकार के नातेदारी संबंधों से जुड़े होते हैं। फिर वहां विभिन्न परिवारों का एक जगह पर साथ-साथ रहने का एक साझा अतीत होता है। इस प्रकार प्राथमिक और अनौपचारिक संबंधों से यहां की सामाजिक संरचना बुनी होती है। जाहिर तौर पर यहां प्रत्येक परिवारों की निजता का सम्मान करते हुए भी मजबूत और अभेद्य दूरी का निषेध होता है, क्योंकि यहां संबंधों का आधार परस्पर नजदीकी है, जबकि शहरों में यह काम दूरी कर रही होती है। इन जीवन मूल्यों का स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूपांतरण भवन निर्माण में होता है।
आधुनिक शहरों में बनने वाले मकान को देखें तो ये भी बंद प्रकृति के होते हैं। दो मकानों के बीच ‘दूरी’ इतनी महत्त्वपूर्ण होती है कि किसी भी स्थिति में इसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। एक ही तल पर दो-तीन फ्लैट होने के बावजूद वे ‘समान धरातल’ साझा नहीं करते। मजबूत दरवाजे और अनिवार्य कॉलबेल संबंधों के अजनबीपन को बनाए रखने में कारगर होते हैं। हर तरफ से बंद इस मकान का एक खुला हिस्सा बालकनी के रूप में जरूर होता है, लेकिन यह हरेक दूसरे मकान से ‘ऊर्ध्वमुखी संबंध’ साझा करता है, न कि क्षैतिज।
इस प्रकार यह खुली जगह भी अपने तरह का एक निजी ‘स्पेस’ ही होती है, जो किसी बाहरी हस्तक्षेप से जीवन को सुरक्षित रखती है। निश्चित रूप से इसमें स्थान की उपलब्धता भी एक मसला है, लेकिन जिन इलाकों में ऐसी बाध्यता नहीं है, वहां भी ‘बाउंडरी वाल’ और विशालकाय लोहे के दरवाजों से यह दूरी बनाए रखने की कोशिश की जाती है। दूसरी तरफ गांवों में बनने वाले मकान की संरचना देखें तो वे काफी खुले होते हैं। चाहे घरों के केंद्र में होने वाला आंगन हो या छोटे और अपेक्षाकृत कम मजबूत दरवाजे, ये सब नजदीकी बने रहने के मूल्य को दर्शाते हैं। साथ ही घर का मुख्य दरवाजा रास्ते की तरफ खुला होता है, ताकि वह बाहर की दुनिया से जुड़ा रहे। कुल मिला कर यहां के भवन इस आकार के होते हैं कि प्राथमिक और अनौपचारिक संबंधों के बीच दीवार न बनें।
हालांकि अब यह अंतर बदलता जा रहा है। उदारीकरण के बाद गांवों की ओर न केवल पूंजी का प्रवाह बढ़ा, बल्कि इसकी सहयुग्मी संस्कृति भी वहां पैर जमाने लगी है। गांवों के भवन निर्माण की शैली में आए बदलाव से इस बात को महसूस किया जा सकता है कि वहां मूल्यगत परिवर्तन कितनी सहजता से अपनी जगह बना रहे हैं। यह बदलाव अच्छा, बुरा कुछ भी हो सकता है, पर इतना तय है कि यह बदल रहा है।