कुटिलतापूर्वक अवध की बेगमों को विपन्न बना देने और झांसी की संतानहीन रानी से उसकी झांसी छीन लेने के अंगरेजों के दुश्चक्र की पृष्ठभूमि समझाते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा था- ‘रानी रोई रनिवासों में, बेगम गम से थी बेजार, उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाजार’। इस पर मेरे सामने क्या विरोधाभास है! गम से बेजार बेगम की सोचता हूं तो ठगा-सा रह जाता हूं इस अलमस्त बेगम को देख कर, जो अपने गहने मुक्तहस्त होकर लुटा रही है। ऐसा करते हुए वह खुशी से लोटपोट हो जाती है। उसके अंग-अंग में थिरकन है। उसकी मुस्कान में एक अनूठा सौंदर्य है।
फगुनहटी पवन का स्पर्श उसके अंग-अंग में भी गुदगुदी कर सकता था जैसे केदारनाथ अग्रवाल की ‘बसंती हवा’ कभी गेहूं की बालों को गुदगुदाती है तो कभी अलसी के सिर पर धरी कलसी गिरा देती है। पर उसे इस बेगम के साथ चुहल करने की शायद इसलिए नहीं सूझती कि यह गांवों में फैले शस्य श्यामल खेतों से आमतौर पर दूर ही रहती है। शायद इसके विदेशी उद्गम के कारण बसंती हवा इससे भावनात्मक स्तर पर न जुड़ कर केवल अतिथि जैसी औपचारिकता निभाती है।
यह रंग-बिरंगे परिधान में सज कर कभी किसी उद्यान को सजाती है, कभी झाड़ी का रूप धारण करके लंबे-लंबे राष्ट्रीय राजमार्गों की मध्य-पट्टी में खड़ी हो जाती है तो कभी चारदीवारियों के ऊपर छाकर उनका आतंक कम करती है, उन्हें बौना बना देती है। लेकिन हर हाल में, हर जगह खुश रहने वाली सादगी के बावजूद महत्त्वाकांक्षा की मशाल इसके सीने में भी धधकती है। तभी शायद मौका मिलते ही ऊंचे-ऊंचे पेड़ों और खंभों का सहारा लेकर आकाश छूने के लिए उतावली हो जाती है। फिर जब इस कटु सत्य से सामना होता है कि आकाशबेल बन पाना इसकी नियति नहीं तो वह बिना लजाए, किसी बालकनी की गोद में आश्रय ढूंढ़ कर इतने को ही अपनी उन्नति की पराकाष्ठा मान लेती है। लेकिन ज्यादा देर तक दुखी रहना उसके स्वभाव में नहीं। बेगम तो वह है, लेकिन महलों के बिना भी जीना उसे आता है। एक खुशमिजाज अंदाज से वह धरती, गमले और चारदीवारियों तक कहीं भी शौक से रह लेती है।
कौन है यह बेगम? यह है ‘बेगमबेलिया’, जो मेरे घर के रूमालिया विस्तार वाले छोटे-से लॉन में एक कोने में पहले सहमी-सी बैठी थी, फिर एक खंभे के सहारे तन कर खड़ी हो गई और अब आकाश छू लेने की लालसा लिए मेरी बालकनी तक पहुंच गई है।
मेरे अंगरेजीदां मित्रों का ‘बेगमबेलिया’ नाम से परिचय नहीं। वे इसे ‘बूगनवैलिया’ कहेंगे। मुझे पता है नाम में कुछ नहीं धरा। लेकिन हमारी बेगमबेलिया का किसी तरह के दिखावे से क्या लेना देना। वह तो इतनी आशुतोषी है कि अपने बहुत नन्हे सफेद-पीले फूलों को चारों तरफ से घेरी हुई हृदयाकार कोमल पत्तियों को ही फूल समझ कर प्रसन्न हो जाती है। उसकी इसी सादगी और भोलेपन पर तो दुनिया निहाल है।
श्वेत, नारंगी, लाल, पीले, गुलाबी, बैंगनी! जाने किन-किन रंगों की ओढ़नी ओढ़ कर हमारी बेगम साहिबा इतना इतराती हैं जैसे विधाता ने प्रकृति का सारा सौंदर्य इन्हीं की झोली में भर दिया हो। विधाता से इसने कुछ विशेष मांगा ही नहीं। न तो पीने के लिए बहुत पानी, न खाने के लिए पौष्टिक खाद। तभी तो धरती के सूखे, पथरीले भागों की कोख से जन्म लेकर भी यह पनप जाती है। दक्षिण अमेरिका में ब्राजील, पेरू, कोलंबिया, वेनेजुएला आदि को भले इसका मूल जन्मस्थान माना जाए, पर सन 1767 में सातों सागरों के वक्ष पर विश्व परिक्रमा करने वाले जहाजी लुई अंतोनियोइन दी बूगनवेलिया ने इसे अपना नाम दिया और विश्व भर में लोकप्रिय भी बना दिया। आज ‘बेगमबेलिया’ का राज आर्कटिक और अंटार्कटिक को छोड़ अन्य सभी महाद्वीपों में फैला हुआ है। साम्राज्ञी विक्टोरिया के राज में भले कहीं सूर्यास्त हो जाता रहा हो, ‘बेगमबेलिया’ के राज में ऐसा नहीं होता!
आमतौर पर सौंदर्य और बुद्धिमता का संयोग विरल होता है, लेकिन विद्या की देवी सरस्वती सुदर्शना भी हैं। अपनी कागज जैसी पतली पत्तियों के कारण जिन्हें भ्रमवश फूल समझा जाता है, अंगरेजी में पेपरफ्लावर यानी कागजी फूल की संज्ञा पाकर ‘बेगमबेलिया’ खुद को विदुषी भी समझती होगी। पर उसके पांव यथार्थ की जमीन पर टिके रहते हैं। तभी तो कांटों के बीच मंद-मंद मुस्कराता गुलाब इसे अति-अभिजात और नकली लगता है। कांटों से बिंधा शरीर तो इसका भी है, पर मंद-मंद मुस्कान इसके लिए नहीं। इसे तो खुल कर खिलखिलाना सुहाता है। उसकी मस्ती से खीझ कर गुलाब मन ही मन ‘बेगमबेलिया’ से कुढ़ता रहता होगा!