अशोक गुप्ता
हाल ही में अपने कामकाजी और पूरे सप्ताह व्यस्त रहने वाले एक दोस्त के साथ बैठने का अवसर मिला तो एक अजीब-सा प्रसंग सामने आया। पता चला कि उसके बेटे के स्कूल में एक कार्यशाला का आयोजन किया गया था, जिसका विषय था- ‘पेरेंटिंग’, यानी माता-पिता बनना सीखना। बात भले ही हंसी से शुरू हुई, लेकिन परिवेश जल्दी ही गंभीर विमर्श में बदल गया। पिछले कुछ समय से जैसा दौर हमारे सामने आ खड़ा हुआ है, उससे सचमुच इस बात के संकेत मिलने लगे हैं कि समाज में इस सीख की गहरी कमी भयंकर दुष्परिणामों के रूप में नजर आ रही है। बेटे द्वारा मां और बहन की हत्या कर देना या पिता द्वारा अपनी बेटी को हवस का शिकार बनाने की खबरें यही दर्शाती हैं कि निश्चित ही जुड़ाव के वे तंतु जो माता-पिता और संतान के बीच अपरिमेय आत्मीयता रचते हैं, वह या तो टूट रहे हैं या पनप ही नहीं रहे हैं। कहने का मतलब यह कि उनके बीच केवल जैविक संबंध का अस्तित्व रह गया है। आखिर समाज में संबंधों में संवेदना के सूत्र कैसे बिखरे और आज हम कई बार बहुत कुछ छूटता हुआ क्यों पा रहे हैं?
मैं पलट कर अपने बचपन में झांकता हूं। लेकिन इस बीच छह दशक से ज्यादा का समय है। उस स्मृति को केवल एक पाठ की तरह दोहराया जा सकता है। वह नए संदर्भ की खोज का विकल्प नहीं बन सकता। बुनियादी बात यह है कि बचपन के सार्थक संरक्षण के लिए यह बहुत जरूरी है कि पीढ़ियों के अंतर के बावजूद बच्चे और माता-पिता के बीच संवाद और समझ की निरंतरता बनी रहे और इस क्रम में कोई बाहरी बाधा कोई रुकावट या असुविधाजनक स्थिति नहीं पैदा करे। दरअसल, आज के समय में यह एक कठिन समीकरण की परिकल्पना है। कारण बहुत सारे हैं। बच्चे और मां के बीच इस तंतु के टूटने के कारण से लेकर बच्चे और पिता के बीच दूरी पनपने के कारण अलग-अलग हैं। उन पर कुछ विचार किया जा सकता है।
पहले अगर मां को केंद्र में रखा जाए तो मांएं कभी-कभी अपने धर्म-कर्म, पूजा-पाठ और व्रत-उपवास का अनुशासन निभाने की विवशता के कारण अपने बच्चे से वह संवेदन सामीप्य नहीं बना पातीं जो बच्चे के भीतर अंकुरित हो रही हलचल का समय रहते आभास पा सके। परंपरा से चली आ रही धारणाओं और इस तरह की सामाजिक व्यवस्था में मांएं कभी-कभी परिवार में या अन्य छोटे-बड़े संबंधियों की सुविधा के लिए चाहे-अनचाहे खुद को कामकाज में झोंक देती हैं। और व्यस्तता के इस क्रम में उनका बच्चा उनके वांछित स्पर्श से छूट जाता है। नौकरी में लगी मांओं को विविध प्रकार की वरीयताएं पूरी करनी पड़ती हैं, जिनमें उनकी निजी महत्त्वाकांक्षा का घटक भी अपनी भूमिका निभाता है। मेरे उसी दोस्त के साथ बातचीत में एक प्रसंग यह आया था कि हमारे समय में माता-पिता का अपना कोई निजी संसार नहीं होता था। हालांकि सच यह है कि पिता का तो होता था और अब भी है, लेकिन मांएं तब भी निर्विकार केवल मां होती थीं। अब भी कई मामलों में यही स्थिति बनी हुई दिखती है। लेकिन अब यह इच्छा रखना कि हर स्थिति में और हर जगह पर मांएं उसी ध्रुव पर वापस लौट जाएं, शायद गलत होगा। फिर भी पनघट की इस राह पर चलना ही होगा कि इस उजास में संतान से निरंतरता खंडित न हो।
पिताओं के संतान से दूर बने रहने के अनेक कारणों में एक तो यह अवधारणा है कि पिता को भयानक छवि वाला और गंभीर बने दिखना चाहिए। अपनी संतान के साथ भी पिता का अपने ईगो यानी अहं से बाहर नहीं आ पाना आज भी अनेक परिवारों में देखा जा सकता है। अधिकतर पिता अपना मूल दायित्व केवल संसाधन जुटाना भर मानते हैं और संतान के साथ उनका सामीप्य भी एक संसाधन है, यह उनकी समझ से बाहर रह जाता है। जुटा कर संतान को सौंपे गए संसाधनों को वह ‘स्टेटस सिंबल’ मान कर रह जाते हैं। अनियंत्रित मोबाइल, टैबलेट, इंटरनेट और यहां तक कि नाबालिग या कम उम्र में ही स्कूटर या कार चलाना ऐसी ही चूक को दर्शाता है जो कई तरह के दुष्परिणामों की नींव रखते हैं। आज के समय में शराबखोरी भी पिता को पिता के भाव से दूर करती दिख रही है।
कुल जमा निष्कर्ष यह है कि माता-पिता और संतान के बीच सम भाव और दोस्ताने का रिश्ता इस तरह बने कि बच्चे और अभिभावक के बीच पारदर्शिता रहे। परिवार में पति और पत्नी के बीच भी दोस्ताना भरे पारदर्शी संबंध हों। उसके बावजूद अनुशासन की एक सूक्ष्म-सी डोर इस दोस्ताने को ढंग से साधे रहे। बस, इससे आगे और क्या! सचमुच अभिभावकी को ऐसा पाठ पढ़ना जरूरी है, जिसकी शुरुआत इस स्कूल ने की है।