संतोष उत्सुक

किसी समारोह या आयोजन में खाने-पीने की व्यवस्था और लोगों का उसमें शामिल होना उस जगह की सांस्कृतिक पहचान को भी दर्शाता है। लेकिन आमतौर पर हम ऐसे आयोजनों का हिस्सा बनते हैं और वहां के कार्यक्रमों से लेकर भोजन तक से निपट कर घर की और लौट जाते हैं। वहां की व्यवस्था हमारे लिए विचार करने लायक नहीं होती है। अपने में गुम होने का ही नतीजा होता है कि जो बातें एक असुविधाजनक रिवायत के रूप में कायम होती जाती हैं, उस पर हमारा ध्यान नहीं जाता। किसी आयोजन में खानपान की व्यवस्था और अव्यवस्था पहली नजर में एक सामान्य-सी बात लगती है। लेकिन कई बार वह सामाजिक व्यवहारों के विश्लेषण का अवसर भी देती है।

हाल ही में ‘स्मार्ट’ होते खूबसूरत शहर में एक विशाल आयोजन में हिस्सा लेने का मौका मिला। सरकारी नौकरी कर रहे लोगों की वार्षिक महाबैठक थी। दूर-दूर से आने वाले सभी प्रतिभागी अक्सर निश्चित समय पर पहुंचने वाले नहीं होते, यहां भी ऐसा ही हुआ। ज्यों-ज्यों दोपहर का समय पास आता गया मेहमान बढ़ते गए। अधिकतम उपस्थिति कितनी हो सकती है, इस बारे में आयोजकों का पूवार्नुमान गलत साबित हुआ। पता चला कि वहां बारह सौ लोगों के खाने के डिब्बे का इंतजाम किया गया है। खाने के समय कुछ देर सब सामान्य तरीके से चलता रहा। खाने के पैकेट आराम से बांटे जाते रहे। मगर जैसे ही खाना कम पड़ता दिखा, लोगों की भूख ने यह बात गौर से सुन ली। फिर छीना-झपटी शुरू होते देर नहीं लगी और अफरातफरी मच गई। खाने के डिब्बे छिपाए जाने लगे, बचा कर अपनी जान-पहचान के लोगों को जैसे-तैसे पकड़ाए जाने लगे। भगदड़ मच गई, कुछ लोग आपस में बहस करने लगे, बस लड़ना बाकी रह गया।

भूख ने जलवा दिखा दिया। इतने शानदार आयोजन में खाने के कुप्रबंधन ने मजा किरकिरा कर दिया। कुछ लोग शांत, किनारे खड़े होकर यह सही बात कर रहे थे कि अगर समझदार आयोजकों ने लंच के समय से कुछ देर पहले हॉल में बैठे लगभग सोलह सौ मेहमानों की गिनती कर ली होती तो ऐसा न होता। इस अव्यवस्था के कारण जिन्हें खाना मिला वे भी अस्त-व्यस्त हो गए और जिन्हें नहीं मिला, वे ज्यादा परेशान हुए। परिसर में कचरा ही कचरा फैल गया, छीना-झपटी में खाना बर्बाद भी हुआ। आयोजन में खाने की वर्तमान व्यवस्था की ओर तीखी अंगुली उठी। खाने-पीने के लिए जिन बर्तनों का इस्तेमाल हुआ, उसमें गत्ते के डिब्बे के अलावा, पॉली प्लास्टिक की खांचों वाली ट्रे थी, उस पर पॉली कवर, प्लास्टिक का चम्मच, रोटियां लपेटने के लिए एल्युमीनियम फॉइल और पीने के पानी के लिए प्लास्टिक के गिलास थे। खान-पान की ऐसी व्यवस्था को आयोजन की शान के रूप में पेश किया जाता है।
लेकिन साफतौर पर यह सब पर्यावरण को नुकसान करती सामग्री थी। कचरे के रूप में यह सामग्री परिसर में यहां से वहां चारों और बिखरी पड़ी थी। विकास, परिवर्तन, बढ़ती जनसंख्या और सबसे जरूरी हमारी सोच ने खानपान की शैली को तंदुरुस्त रखने वाले पीतल, तांबे कांस्य के बर्तनों, पत्तल दोने और कटोरों से होकर स्टील एल्युमीनियम से छिटक कर प्लास्टिक पॉलिथीन तक को खाने के बर्तनों में शामिल कर लिया है। पॉलीथिन और प्लास्टिक के हर नुकसान से वाकिफ होने के बावजूद व्यक्तिगत जीवन में अभी भी इनमें हमारी जान अटकी पड़ी है।

हमने कभी संजीदगी से नहीं सोचा कि अगर हम केवल सामूहिक उत्सवों में ही पारंपरिक शैली को फिर से अपना लें तो हजारों लोगों का खाना कम खर्च में सरल-सहज तरीके से संपन्न हो सकता है। खाना संयमित तरीके से परोसा जाता है, तभी व्यर्थ नहीं जाता। सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि हम मिल कर पर्यावरण स्वच्छ रखने में सक्रिय योगदान देते हैं, क्योंकि पॉली कचरा उत्पादित नहीं होता है। इस बहाने आज का बदल चुका देशवासी भी कुछ तो अपनी संस्कृति के संपर्क में रह ही सकता है।

देश के लगभग सभी पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी धाम शैली प्रचलित है, जहां एक बैठक में सैकड़ों मेहमान आराम से बैठ कर पारंपरिक स्वाद भरा गरम खाना खाते हैं। इस दौरान गपशप भी हो जाती है। यह खाना व्यावसायिक अनुभवी लोगों द्वारा परोसा जाता है, जो कम समय में हजारों लोगों को परोसने की काबिलियत रखते हैं। किसी को भी कभी खाकर देखना चाहिए कि कितना आनंद आता है। खाना आखिरी मेहमान तक गरम परोसा जाता है। समाज में खानपान की आधुनिक सामूहिक शैली में घर कर चुके गलत बदलावों को फिर से बदलने की सामयिक जरूरत सिर उठा रही है, मगर कोई शहरी व्यक्ति या समूह सिर नहीं उठा रहा। देश के करोड़ों भूखे नागरिकों की जरूरत के मद्देनजर भी इस संभावित बदलाव को संजीदगी से समझने की जरूरत है।