प्रवीण नायक
हाल ही में एक प्रिय मित्र से मेरा झगड़ा हुआ। दरअसल, मैंने उसके एक दुख में शरीक होने से मना कर दिया था। दुख यह था कि ‘भगवान ने उसके भाग्य में एक बेटी दे दी! बेचारा कैसे उसे पढ़ाएगा-लिखाएगा, कैसे उसकी शादी कराएगा, दहेज कहां से देगा!’ इसके उलट मैं अचंभित और दुखी इसलिए था कि कल तक मुझसे अधुनिकता पर तूफानी बहस करने वाला यह इंसान इस मानसिकता में क्यों जी रहा है! हालांकि इस मनोवृत्ति को धारण करने वालों की कमी नहीं है, जिन्होंने लड़कियों पर गैरतार्किक निर्योग्यताएं लाद रखी हैं। दरअसल, भारतीय मध्यवर्ग में लड़कियां अपने परिवार और समाज की कथित इज्जत की झंडाबरदार हैं। थोड़ा भी उससे इधर-उधर हुर्इं नहीं कि परिवार की इज्जत गई! ऐसे किसी भी कृत्य के लिए लड़के उस हद तक जिम्मेदार नहीं हैं। इस नाजुक इज्जत की डोर को बचाने का भार सिर्फ लड़कियों पर है।
भारत में प्रति 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएं हैं। कई राज्य तो इससे भी भयानक स्थिति में पहुंच चुके हैं। जबकि यूरोप के कई देशों में स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों की संख्या पुरुषों के मुकाबले काफी ज्यादा है। यह एक सामान्य-सा जैविक विज्ञान है कि अगर किसी समाज में लड़के-लड़कियों के साथ हर स्तर पर समान व्यवहार हो तो महिलाओं की जीवन प्रत्याशा पुरुषों से अधिक होती है। यानी वे पुरुषों के मुकाबले ज्यादा वर्षों तक जीवित रहेंगी। हालांकि दिखावे की समानता भारत में बखूबी मौजूद है। लेकिन सवाल है कि कितने समय से भारत एक विकसित देश होने का सपना देख रहा है!
यह अभी इसलिए और भी लंबा रहने वाला है कि विकसित देशों की तुलना में भारत में महिलाओं का ‘वर्क पार्टिसिपेशन रेट’ यानी काम में भागीदारी बहुत कम है। एक सर्वे के मुताबिक अगर भारत में महिला और पुरुष के काम की भागीदारी समान हो जाए तो देश की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में चौबीस प्रतिशत का अतिरिक्त योगदान होगा। मतलब वर्तमान जीडीपी के हिसाब से लगभग पैंतीस लाख करोड़ का अतिरिक्त योग हर साल। लड़कियों की शिक्षा के महत्त्व और उनकी क्षमताओं पर शक करने वाले शायद उनकी प्रतिभा के प्रति अज्ञानी हैं। देश में लगतार पिछले कई सालों से शीर्ष प्रशासनिक पदों पर लड़कियां ही सबसे अव्वल आ रही हैं। ओलंपिक खेलों में भारत की लाज बचाने का श्रेय भी महिला खिलाड़ियों को जाता है। उदाहरणों की कमी नहीं है। यही नहीं, जहां वे पिछड़ जाती हैं, वहां उनकी कमी कम होती है, यह विभेदकारी व्यवस्था और समाजीकरण इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार होते हैं।
भारत मे पितृसत्तात्मक सोच इतनी हावी हो चुकी है कि पुरुषों को शायद डर है कि समान व्यवस्था में उनकी सत्ता छिन जाएगी। भारत में सरकार और समाज द्वारा कई छोटे-छोटे प्रयास किए गए हैं, लेकिन उनका बहुत महत्त्व नहीं है। पंचायती राज संस्थाओं में महिला आरक्षण का फायदा हुआ है। लेकिन आमतौर पर ऐसा देखा जाता है कि पंचायत में किसी पद पर चुनी गई महिला की जिम्मेदारियां उसका पति निभाता है। अब तक महिलाओं की कोई स्वतंत्र पहचान नहीं बनने दी गई। उसकी कर्मठता और जुझारूपन को उसके चौके तक सीमित रखा गया। इसके उलट भारत में ऐसी तमाम महिलाएं हैं, जिन्होंने अपनी पहचान स्थापित की। लेकिन व्यवस्था आज भी उनके सामने बाधा बन कर ही खड़ी है। महिला आरक्षण बिल को शायद ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। महिला सशक्तीकरण तो सही मायने में तभी होगा, जब अपने से संबंधित कानून बनाने में महिलाओं को उचित भागीदारी मिलेगी।
इसके अलावा, दहेज प्रथा पर शानदार भाषण देने वाले और विरोध में ठीक तरीके से विचार रखने वालों से ही क्यों न पूछ लिया जाए कि कितनों ने अपनी जायदाद में बेटे और बेटी को बराबर हिस्सा दिया है! झूठी इज्जत के नाम पर हत्या के मामले आज के भारत में एक जगजाहिर तथ्य है। बेटी और उसके प्रेमी या पति को सिर्फ इसलिए मार डाला जाता है कि उसने अपनी जाति से बाहर से प्रेम कर लिया या शादी कर ली। ऐसी घटनाओं पर शर्मिंदा होने के बजाय उसका महिमामंडन किया जाता है। कई लोग यहां तक कहते हैं कि फलाने ने बेटी को गोली मार दी, लेकिन अपनी इज्जत पर आंच नहीं आने दी!
मेरे हिसाब से ऐसी इज्जत को अपने भीतर से नष्ट कर देना चाहिए जो महज प्रेम करने के एवज किसी लड़की और उसके प्रेमी की हत्या के लिए प्रेरित करती है। अंतरजातीय विवाह सभ्य समाज की ओर बढ़ते कदम का प्रतीक हैं। लेकिन इसके प्रति समाज का उल्टा नजरिया है। इसमें एक महिला की क्या जगह होगी? यह भी समझने की जरूरत है कि जाति का बोझ ढोने की बेवकूफी भरी विरासत गरीब और कमजोर तबकों पर ही ज्यादा डाल दिया गया है। उसमें भी ऐसे सारे नियम-कायदों की चारदिवारी में स्त्रियों को कैद कर दिया गया है। सिमोन द बोवुआर ने कहा है- ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है।’ अब हमें सोचना है कि हम अपने यहां स्त्री को क्या बनाते हैं!