कविता भाटिया
अपनी-अपनी धुरी पर भागते मनुष्य की इस दुनिया में नित नए मूल्य और संस्कार टूटते हैं, बनते हैं और परिवर्तित होते समय में फिर से व्याख्यायित भी होते हैं। सड़क पर चलती गाड़ी के ‘साइड मिरर’ में पीछे से आती गाड़ियों की छवि और गति को भांप अपने वर्तमान की सीट पर चैकन्ना हो आगे की राह पर दौड़ने की तरह ही अतीत, वर्तमान और भविष्य बंधा है। अतीत का न तो पूरी तरह नकार संभव है और न ही अंधानुकरण। ठीक इसी तरह मौजूदा समय में भी सारे नवीन तर्क और सोच के पैमाने जायज नहीं हैं, पर समय के अनुकूल रूढ़ मान्यताओं और परंपराओं का टूटना लाजिमी है। सच यह है कि जिस संस्कृति में समय की मांग के अनुसार विकसित और रूपांतरित होने की क्षमता नहीं होती, वह पिछड़ जाती है। आधुनिकता का एक बड़ा लक्षण संदेह माना गया है। इस संदेह ने ही मनुष्य को नवजागरण काल में कूपमंडूकता से बाहर निकाला था।
इधर लगभग दस वर्ष के बाद अपनी एक सखी से मिलना हुआ। बातचीत के क्रम में उसने बताया कि वह आठ वर्ष से दिल्ली छोड़ कर हैदराबाद में नौकरी कर रही है और अब वहीं व्यवस्थित तरीके से रह रही है। उसकी छोटी बहन भी विशाखापट्टनम के किसी संस्थान में कार्यरत है, जबकि माता-पिता और छोटा भाई दिल्ली के अपने उसी पैतृक घर में रह रहे हैं। वह उल्लास में अपनी नौकरी और नई जगह से जुड़े अपने अनुभवों को मेरे साथ साझा कर रही थी और मैं उसे गर्वीले अहसास और आश्चर्य-मिश्रित भाव से देख रही थी। बातचीत के दौरान ही उसने बताया कि इधर मां की तबियत कुछ खराब होने के कारण उसे दो बार दिल्ली आना पड़ा, लेकिन ज्यादा छुट्टी न मिल पाने के कारण छोटा भाई ही सब देखभाल कर रहा है।
वह तो मुझसे मिल कर चली गई, लेकिन मेरे मन-मस्तिष्क में पुराने संस्कारों, रीति-रिवाजों और नवीन तर्कों के साथ मान्यताओं के उलझे द्वंद्व को छोड़ गई। एक वह भी समय था जब बेटियों को घर के नजदीक ही शिक्षा और नौकरी ढूंढ़ने की सलाह दी जाती थी। अपने शहर से बाहर जाने की कल्पना भी नामुमकिन थी। आज की विषम सामाजिक परिस्थितियों के दबाव और बढ़ते अपराधों के कारण आज अगर लड़की अंधेरा होने पर घर न लौटे तो किसी अनिष्ट की आशंका से मन धड़कने लगता है। ऐसे में उत्तर भारत से बहुत दूर दक्षिण में अकेले रह कर नौकरी करना अपने आप में एक साहसिक कदम है। उसने बताया कि उसके पिता ने बेटियों के बढ़ते कदमों को कभी नहीं रोका, बल्कि सदा अपनी खुली आंखों, अपने अनुभवों से बाहर की दुनिया को देखने-समझने की वैचारिक चेतना दी।
यों पुरुष तंत्र ने हमेशा से ही स्त्री-अस्मिता को कुचला है। एंगेल्स भी मानते हैं कि ‘सृष्टि के आरंभ से ही पुरुष सत्ता स्त्री की चेतना और गति को बाधित करती रही है।’ ऐसे में दो सौ साल पहले विश्व की पहली नारीवादी मेरी वोल्सटन क्राफ्ट ने कहा था कि ‘जरूरत इस बात की है कि स्त्री को खुद अपने बारे में सोचने-विचारने और निर्णय करने का अधिकार मिले।’
इसी क्रम में मेरी स्मृतियों में तमिलनाडु की कौशल्या उभर आई, जिसने अपनी तथाकथित ऊंची कही जाने वाली जाति के चोले को त्याग कर अपने परिवार वालों की इच्छा के विरुद्ध एक दलित युवक से प्रेम विवाह किया था। लेकिन अपनी जाति के झूठे दंभ और अहं में पागल हुए उसके पिता ने गुंडों के जरिए कौशल्या और उसके पति पर हमला करवाया, पति की सरे-बाजार निर्ममतापूर्वक हत्या करवा दी। जिस समाज में प्रेम करना खतरनाक अपराध माना जाता हो, वहां कौशल्या ने समाज की थोथी परंपराओं को तोड़ कर संत कवि कबीर के ‘ढाई आखर प्रेम’ को जीवंत करके जीया और समाज में एक सार्थक मिसाल पेश की। अब जब अदालत ने उसके पिता सहित कई लोगों को मौत की सजा सुनाई तो कौशल्या ने उस न्याय का स्वागत किया।
सच है, प्रेम ऐसी ही युवतियों से समाज में बचेगा और पनपेगा। अब प्रेम के शत्रुओं को ऐसी अनेक कौशल्याओं से भयभीत होना होगा, क्योंकि आज की लड़कियां सदियों से बंदी पिंजरे के सींखचों को तोड़ मुक्त गगन में कलरव कर रही हैं और उनके पंख अब नभ के विस्तार को नापने की तैयारी कर रहे है। पुरुष सत्ता के ठेकेदारों को अपना नया परिचय देते हुए आज की स्त्री कवयित्री सविता सिंह के शब्दों में कह उठती है- ‘उन्मुक्त हूं देखो/ यह आसमान/ समुद्र यह और उसकी लहरें/ हवा यह/ और इसमें बसी प्रकृति की गंध सब मेरी है/ और मैं हूं अपने पूर्वजों के शाप/ और अभिलाषाओं से दूर पूर्णतया अपनी!’ आज जब समाज का एक तबका मूल्यों और संस्कारों के पतन पर चिंता जताते हुए आंखें तरेरे रहता है, तो ऐसे में सामाजिक जड़ता को तोड़ते हुए यह नव कलरव बड़ा सुखद लगता है, इस उम्मीद के साथ कि युग के अनुकूल स्थितियां बदल रही हैं, बदलेगी।