संतोष उत्सुक

बात थोड़ी पुरानी है। उन दिनों मैं मांसाहारी था। एक वरिष्ठ सहकर्मी का विवाह था। हम सभी सहयोगी खाने पर आमंत्रित थे। कुछ वैवाहिक भोज के आयोजन में बकरे का मांस एक खास व्यंजन होता था, जिसे परोसने के लिए किसी ‘अनुभवी’ व्यक्ति को जिम्मेदारी दी जाती थी। जमीन पर लंबी-सी टाट बिछा कर खाना परोसा जाता था। उस दिन खाने के लिए बैठे और मांस परोसा गया तो मैंने कहा- ‘थैंक यू’। दोबारा वही व्यक्ति आए और पूछा तो मैंने फिर कहा- ‘थैंक यू’ और उन्होंने फिर से मांस मेरी थाली में डाल दिया। वे तीसरी बार आए तो मैंने कहा- ‘थैंक यू’। हालांकि अपने अनुभव से वे समझ चुके थे कि मुझे और नहीं चाहिए, लेकिन उन्होंने पूछा- ‘थैंक यू आर नो, थैंक यू’। मैं तत्काल अपने अंग्रेजी ज्ञान में गया और समझ गया कि मुझे ‘नो, थैंक यू’ बोलना चाहिए था।

उस वक्त मुझे समझ आया कि हम बहुत मौकों पर ‘नो, थैंक यू’ की जगह या ‘नहीं, शुक्रिया’ की जगह ‘शुक्रिया’ ही बोलते हैं। यह हमारी आदतों में शुमार है। हम कभी-कभार ही जागरूक रह पाते हैं कि बोलने से पहले शब्दों का सही अर्थ समझना जरूरी है। बहुत से शब्द ऐसे हैं, जिन्हें बोलने से अर्थ बिल्कुल बदल जाता है। शायद इसीलिए कहा भी गया है- ‘पहले तोलो, फिर बोलो’। क्या बोलना है, यह अलग बात है। अब तो बोलना भी छूट रहा है। ‘थैंक यू’ या ‘सॉरी’ का प्रयोग भी कम होने लगा है। माफी मांग लेने से कोई छोटा नहीं हो जाता, बल्कि यह पता चलता है कि हम आपसी संबंधों की कितनी कद्र करते हैं।

पाश्चात्य संस्कृति हमें बहुत पसंद है, लेकिन उनकी यह सहज, सौम्य अभिव्यक्ति हम अभी तक सीख नहीं पाए। हर व्यक्ति यही सोचने लगा है कि वह जो कर रहा, कह रहा है, वही सही है। कहने से पहले जरा सोच लेना या कहने के बाद समीक्षा करना किसी को पसंद नहीं रहा। यही संस्कृति नौजवानों और बचपन में घर कर रही है।

सोशल मीडिया के पृष्ठों पर बहुत भीड़ है। कितने दोस्त, जिन्हें कभी मिले नहीं, जानते नहीं, लेकिन उनकी पोस्ट को लाइक जरूर किया जाता है। मुबारक का फोन नहीं किया जाता, जन्मदिन की बधाई फेसबुक पर पढ़वा दी जाती है, लेकिन ध्यान नहीं रहता कि हमारी उंगलियां टाइप क्या कर रही हैं। हमारे एक परिचित हैं। उनका पुकारने का नाम ‘द डिम्मी’ है। पिछले दिनों उनका जन्मदिन था। उनके कई परिचितों ने उन्हें अंग्रेजी में हैप्पी बर्थडे ‘द डम्मी’ लिखा। ऐसा लिख कर उनके नाम का अनर्थ कर दिया। वास्तव में ‘द डिम्मी’ नाम के व्यक्ति ‘डम्मी’ नहीं है।

हम सुबह से शाम तक हिंदी बोलते हैं, हिंदी फिल्में, धारावाहिक देखते हैं, हिंदी गीत सुनते हैं, लेकिन जब लिखने की बात आती है तो हमें शर्म आती है। हिंदी लिखना पसंद नहीं करते और अंग्रेजी टाइप करते हुए कुछ का कुछ कर डालते हैं। एक पूर्व सहकर्मी बैंक से सेवानिवृत्त हो रहे थे। उन्होंने फेसबुक पर सभी सहयोगियों का धन्यवाद करते हुए लिखा, ‘टुडे आई एम रिट्रेनिंग फ्रॉम बैंक सर्विस’। उनका आशय था कि आज मैं बैंक से सेवानिवृत्त हो रहा हूं।

मैंने उन्हें शुभकामनाएं देते हुए उनकी पोस्ट पर पूछा- ‘आर यू रिट्रेनिंग आर रिटायरिंग फ्रॉम बैंक सर्विस’। मजेदार यह कि कितने ही लोगों ने ‘कॉन्ग्रेच्युलेशनंस’ को लिखा- ‘कांगरचुलेशंस’। टाइप करने में जल्दबाजी, हिंदी को कमतर समझने और अंग्रेजी से प्रेम के कारण ‘एप्रीसियेशन’ की जगह ‘एप्लीकेशन’ या फिर ‘इरीगेशन’ की जगह ‘इरीटेशन’ लिखा भी देखा गया। इसके अलावा भी कई शब्द ऐसे हैं। कुछ कहने या लिखने के बाद जांचने की आदत अब वैसे भी नहीं रही।

यह प्रशंसनीय नहीं है, लेकिन इसमें बरसों तक हजारों विद्यार्थियों को पढ़ा चुके हिंदी और अंग्रेजी के पढ़े-लिखे लोग और अध्यापक भी शामिल हैं। उन्होंने समय के साथ चलते हुए सोशल मीडिया पर शब्दों को छोटा कर दिया है। वे ‘थैंक्यू जी’ को ‘टीएनकेजी’ लिखते पाए गए हैं। ‘ओके’ की जगह ‘के’ लिखना शुरू हो गया है।

दिलचस्प यह है कि हिंदी प्रयोग को लेकर भी हम इसी तरह होते गए हैं। व्याकरण आधारित और आम लोगों की बात छोड़िए, कई लेखकों को भी ‘कि’ और ‘की’ के प्रयोग बारे में शंका रहती है। बात थोड़ी सजगता की है और किसी भी काम को सही तरीके से करने की इच्छा की है। हमारे पास सोशल मीडिया पढ़ने और यूट्यूब वीडियो देखने के लिए बहुत समय है। ‘वाट्सऐप उच्च शिक्षण’ में ‘विद्यार्थी’ बढ़ते जा रहे हैं। बहुत लोगों के फोन में हिंदी टाइप की सुविधा है और वे सोचते भी हिंदी में हैं।

अंग्रेजी या हिंदी में बोलते और लिखते समय अनुशासन संभाल लिया जाए तो हिंग्लिश से पीछा छुड़ाना भी शुरू किया जा सकता है। सवाल है कि हम नाहक अंग्रेजी प्रेम या दिखावे के फेर में पड़ने के बजाय हम अपनी भाषा या फिर हिंदी के ऐसे शब्दों को अपने व्यवहार का हिस्सा क्यों नहीं बना सकते, जो बोलने में सहज और समझने में भी उतना ही सुगम हो।