घनश्याम कुमार देवांश

शिक्षा के लिए जितनी तकनीक और संसाधन आज मौजूद हैं, आज से कुछ दशक पहले से उसकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती। आजकल शिक्षकों और विद्यार्थियों के पास सूचना का अथाह भंडार है। विश्व की तमाम भाषाओं से लेकर इतिहास, विज्ञान से लेकर कला तक शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र या विषय बचा हो, जिसके पास आधुनिकता और तकनीक का यह उपहार न पहुंचा हो।

पढ़ने-पढ़ाने की स्थितियां भी पहले से कहीं अधिक बेहतर हो गई हैं। खासकर निजी क्षेत्र के विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में। ऐसा भी नहीं है कि इसके कोई सकारात्मक परिणाम निकलकर सामने नहीं आ रहे हैं। भाषा और तकनीक के मामले में एक ऐसी दक्ष पीढ़ी सामने आ रही है जो हर क्षेत्र में अपने सफलता के झंडे गाड़ रही है। नई पीढ़ी के युवा नए उपकरणों का आविष्कार कर रहे हैं।

विज्ञान और तकनीक को मांज कर पैना बना रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नई ऊंचाइयों पर ले जा रहे हैं। बाजाररूपी कामधेनु को दुहने का जो हुनर इस पीढ़ी के पास है, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन इस सबके बावजूद शिक्षा एक ऐसी जगह पर पिछड़ती जा रही है, जिससे कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए। इसे अगर तीन लफ्जों में कहा जाए तो ये मकसद होंगे- शांति, संवेदना और शालीनता।

ऐसा लगता है शिक्षा के बढ़ते हुए विशाल समुद्र में ये शब्द कहीं खो गए हैं या उसकी तलहटी में जाकर बैठ गए हैं। शिक्षा की दुनिया के तमाम पात्रों में शांति के तत्त्वों की ऐसे भारी कमी शायद ही पहले कभी रही हो। उसमें भी शिक्षकों की हालत तो विशेषकर अति दुखद है। ऐसा इसलिए कि इस पूरी व्यवस्था में शांति के स्रोत वही हो सकते हैं। बल्कि उनकी भूमिका शांति के संवाहक के रूप में ही होनी चाहिए।

जिस समाज में शिक्षक शांति के संवाहक नहीं होंगे, उसे अशांति, अपराध, अज्ञान, अंधविश्वास, अन्याय और असमानता से पीड़ित होकर पथभ्रष्ट होने से भला कौन रोक सकता है। शिक्षक का व्यक्तित्व शांति से ऐसा भरा होना चाहिए कि उसके संपर्क में आने पर अपने आप शांति का अनुभव हो। अगर कोई पूछे कि शिक्षा में शांति पर इतना जोर क्यों, तो यही कहा जाना चाहिए कि ज्ञान का वास्तविक सृजन शांति में ही हो सकता है।

लेकिन आज का शिक्षक खुद एक अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। आज उसके लिए सबसे पहला सवाल यही आ खड़ा हुआ है कि वह बाजार की इस चमक और फिसलन भरी सतह पर अपने पैर कैसे जमाए रखे। उसका संतुलन जरा-सा बिगड़ा नहीं कि वह गिरा। बाजार केंद्रित होती जा रही इस दुनिया में शिक्षक ने अपनी एक स्वतंत्र पेशेवर पहचान खो दी है।

इसे यों भी कह सकते हैं कि उसकी पहचान बाजार ने छीन ली है। आज उसमें और एक सामान्य नौकरीपेशा व्यक्ति में कोई अंतर नहीं रह गया है। उसके पास राष्ट्र के भविष्य निर्माता होने के नाते कोई अतिरिक्त सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं है। उसके पास जो कुछ है वह उसके द्वारा कमाए जाने वाले धन के अनुपात में ही है।

दूसरी बात शिक्षक को पाठ्यक्रम, दिनचर्या की बेड़ियों में जकड़कर उसके रहे-सहे स्वतंत्र चिंतन को भी मुश्किल में डाल दिया गया है। वह कक्षा में क्या करेगा, यह पूर्व से तय है। ऊपर से तय होकर आ रही विषयवस्तु को वह एक पत्रवाहक की तरह वितरित कर देता है। वह दिन-प्रतिदिन अपने बीते दिनों और आने वाले दिनों के बही खाते बनाने में लगा रहता है। शिक्षकों को महज सहायक बना दिया गया है।

उसे कहीं भी किसी भी हाल में भेजा जा सकता है। हो सकता है वह सड़क के चौराहे पर खड़ा चालान काटता और नागरिकों की घुड़कियां सुनता दिख जाए। हो सकता है चुनाव में कहीं मतदान केंद्र पर सुबह पांच बजे डटा मिल जाए। संभव है वह पोलियो की खुराक पिलाता या राशन बांटता नजर आ जाए। और कक्षा में तो शिक्षा अधिकारियों से लेकर पत्रकारों तक, सब घुसे चले आते हैं कि शिक्षक की औचक परीक्षा ले ली जाए।

जिस देश में शिक्षक इस दशा में हो, वहां शिक्षा में जीवन मूल्य और मनुष्यता की गरिमा कहां से प्रकट होगी? ऐसी शिक्षा व्यवस्था तो उस मृत हो चुके ठूंठ वृक्ष की भांति है, जिस पर न फल आ सकते हैं और न ही पत्तियां। हमें एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जहां शिक्षक सम्मानित हो और उत्साह से भरा हुआ हो, प्रयोगधर्मी हो।

शिक्षा में हर जाति, धर्म, संप्रदाय के शिक्षक संतुलित रूप से हों, ताकि उसमें बच्चों को एक असंतुलित समाज की झलक भूल कर भी न दिखाई दे। इन दिनों, जब देश में चारों तरफ नई शिक्षा नीति की चर्चा गरम है, एक देश के तौर पर हमें यह भी सोचने की जरूरत है कि हमारे शिक्षक कितने सबल, आत्मविश्वासी और गरिमा से युक्त हैं। अगर वे खुद को अशांत और उत्पीड़ित महसूस करते रहेंगे तो बच्चों की तरफ प्रेम और शांति से भरी ज्ञान की सरिता भला किस प्रकार बह सकेगी!