ध्रुव गुप्त

सृष्टि के आरंभ से मनुष्य और पक्षियों के बीच का रिश्ता बहुत गहरा और आत्मीय रहा है। अपने भोलेपन के अलावा कुछ हद तक हमारे संगीत संस्कारों के निकट होने की वजह से वे हमेशा हमारे दिलों के पास रहे हैं।

हमारी सुबहें इनके संगीतमय कलरव से शुरू और हमारे दिन इनके थके हुए शोर के साथ खत्म होते आए हैं। इनके होने भर से हमारे वातावरण में ही नहीं, हमारी संवेदनाओं में भी संगीत बजता है। ये पक्षी जीवन की तमाम जटिलताओं के बीच हमारे लिए भोलेपन का एक भरोसा रहे हैं। विश्व के लगभग सभी देशों के साहित्य, लोकगीतों और लोककथाओं ने इस खूबसूरत रिश्ते को बेहतरीन अभिव्यक्ति दी है।

हाल के कुछ दशकों में बेतरतीब शहरीकरण और अंध औद्योगीकरण के दौर ने पक्षियों के साथ हमारे रिश्ते को बहुत चोट पहुंचाई है। पेड़ों की लगातार कटाई और हर तरफ कंक्रीट के बेतरतीब उगते जंगलों और कल-कारखानों के धुएं के कारण पक्षी लगातार हमसे दूरी बना रहे हैं। जिन थोड़े से गांवों में अभी कुछ पेड़-पौधे बच रहे हैं, वहां जीवन में थोड़ा-बहुत संगीत भी बचा हुआ है।

हमसे दूरी बनाने वाले पक्षियों में सबसे पहले हम अपनी चिरपरिचित गौरैया, कोयल और मैना को ही लें। बड़े शहरों में अब ये छोटे पक्षी शायद ही कहीं दिखते हैं। उनके लगातार लुप्त होते जाने या हमसे फासले बना लेने की सबसे बड़ी वजह संचार क्रांति की उपज बेतरतीब रूप से लगे असंख्य मोबाइल टावर हैं। शहरों से लेकर गांवों तक लगातार फैलते इनके जाल ने छोटे पक्षियों को बहुत नुकसान पहुंचाया है।

इन टावरों से निकलने वाला विकिरण या रेडिएशन इनके लिए जानलेवा साबित हुआ है! इससे उनके हार्मोन संतुलन, प्रजनन शक्ति और स्नायुतंत्र पर हानिकारक असर पड़ा है! पक्षी विज्ञानियों के मुताबिक मोबाइल टावरों के कुप्रभाव से दुनिया भर में छोटे पक्षियों की लगभग बयालीस प्रजातियां या तो नष्ट हो चुकी हैं या नष्ट होने के कगार पर हैं!

इसके अलावा, इंग्लैंड की एक संस्था द्वारा हाल में इंग्लैंड सहित अट्ठाईस यूरोपीय देशों में पक्षियों की घटती संख्या पर किए गए एक व्यापक अध्ययन और डेटा संग्रह से यह बात सामने आई है कि गहन खेती में अत्यधिक मात्रा में उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से पक्षियों की संख्या में भारी गिरावट आई है।

यूरोप भर में फैले पचास से ज्यादा शोधकर्ताओं की टीमों ने पाया कि अधिक फसल के लोभ में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग के कारण यूरोप में हाल के कुछ वर्षों में पचपन करोड़ से ज्यादा पक्षियों की मौत हुई है। यह भी कि पूरे यूरोपीय महाद्वीप में 1980 के बाद सभी प्रकार के जंगली पक्षियों की संख्या में एक चौथाई, लेकिन प्रजातियों में यह गिरावट आधे से अधिक दर्ज की गई है। इस अध्ययन ने दुनिया भर के पक्षी वैज्ञानिकों और पक्षी प्रेमियों की चिंताएं बढ़ा दी है।

पक्षियों की बढ़ती-घटती संख्या को प्राकृतिक संतुलन या असंतुलन का बैरोमीटर माना गया है। उनकी लगातार कम होती संख्या इस बात का इशारा है कि प्रकृति में गंभीर विक्षोभ पैदा हुआ है। यह सवाल आज हर संवेदनशील व्यक्ति को परेशान कर रहा है कि मासूम पक्षियों को सुरक्षित करने का रास्ता क्या है? विकास के नारे के बीच प्रकृति से ज्यादा से ज्यादा लूटकर अपनी सुख-सुविधा बढ़ाने की आपाधापी में संतुलन की परवाह शायद किसी को नहीं है।

यह संतुलन हासिल करने के लिए सबसे पहली जरूरत है प्रकृति और पशु-पक्षियों के लिए हमारी संवेदना। यह संवेदना है तो रचनात्मक और मानवीय विकास के रास्ते भी खुलेंगे। इस मामले में हम आदिवासी समाजों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। आदिवासी समाजों में मनुष्य और पक्षियों का रिश्ता अब भी कायम है। वहां लोग इनकी पूजा करते हैं और इनसे अपने घर-आंगन और बाग-बगीचों को कलरव से भर देने की याचना करते हैं।

अफ्रीका के कुछ कबीलों में जब तक घर के छप्पर और सहन में पक्षियों के संगीत नहीं गूंजे, घर में किसी धार्मिक अनुष्ठान की शुरुआत नहीं होती। वे आदिवासी कबीले पक्षियों के गान में अपनी दिवंगत मांओं और दादियों की लोरियां सुनते और महसूस करते हैं। उनका विश्वास है कि मरने के बाद भी मांओं का अपनी संतानों से रिश्ता नहीं टूटता। उनकी पवित्र आत्माएं चिड़ियों का रूप धरकर अपने घरों के रोशनदानों या पास के पेड़ पर घोंसले बनाकर अपनी संतानों की निगरानी करती हैं और शोर मचाकर उन्हें किसी भावी अनिष्ट की चेतावनी भी देती हैं।

जीवन हम इंसानों का हो, पशु-पक्षियों का हो या पेड़-पौधों का, प्राकृतिक संतुलन के लिए सभी अपरिहार्य हैं। प्रकृति से लड़कर नहीं, बल्कि उसके साथ सामंजस्य बिठाकर ही यह जीवन बच सकेगा। हमारी समूची प्रकृति एक दूसरे के बीच गहरे अंतर्संबंधों से जुड़ी हुई है। इसमें से कुछ भी नष्ट हुआ तो बाकी भी विनाश से नहीं बच सकेंगे। समय रहते अगर हम और आप इस बात को नहीं समझे तो यकीन मानिए, चुप बैठकर प्रलय की प्रतीक्षा के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा हमारे पास।