सचिन समर

सब कुछ होते हुए भी किसी न किसी तरह का अभाव व्यक्ति को होता है और उसे दूर करने के लिए प्रयास भी होता है, लेकिन अभावों की सूची इतनी बड़ी होती जाती है कि उसे पूरा करने में जिंदगी बीत जाती है, लेकिन अभाव पूरे नहीं होते। किसी के पास पैसे नहीं हैं तो किसी के पास घर नहीं है।

किसी को नींद का अभाव है, तो किसी के पास समय नहीं है। किसी को सुंदर नहीं माना जाता है तो कोई अस्वस्थ है। किसी के पास खुशी की कमी है, तो कोई शांति की कमी महसूस कर रहा है। इस तरह न जाने कितनी तरह की कमियां हैं, जिन्हें लोग दूर करना चाहते हैं। लेकिन प्रयास करने पर भी कुछ न कुछ अधूरा रह जाता है।

एक बहुत महत्त्वपूर्ण कथन है- ‘सब कुछ तो किसी के पास नहीं होता, पर कुछ न कुछ हर किसी के पास होता है। जरूरी यह है कि हम उस ‘कुछ न कुछ’ पर भी अपना ध्यान केंद्रित करें। अन्यथा हमारे जीवन को दौड़ कभी थमेगी नहीं।’ हमारे मन का पूरा ध्यान इस बात पर केंद्रित होता है कि हमारे पास क्या नहीं है? और उस खाली स्थान को भरने का हम प्रयास करने लगते हैं।

हम कभी भी अपने आप से संतुष्ट नहीं रहते और बहुत कुछ होते हुए भी अभावों से परेशान होते रहते हैं कि हमारे पास फलां चीज नहीं है। अगर अमुक वस्तु हमारे पास होती तो कितना अच्छा होता। पर उस वस्तु के मिलते ही उसका महत्त्व कम हो जाता है और थोड़े दिनों के बाद फिर कोई नई चीज पाने की इच्छा जाग जाती है। इस तरह यह क्रम चलता रहता है। न हम अपने अभावों को दूर करने वाली इन वस्तुओं से खुश होते हैं और न खुद से इसे दूर कर पाते हैं। इसे दूर करने का केवल एक ही तरीका है- ‘दृष्टिकोण’।

सही दृष्टिकोण के अभाव में जीवन में अभाव बना रहता है और पूरी तरह से दूर नहीं हो पाता। जिस समाज में हम रहते हैं, वहां हम अपने समान दूसरे लोगों को देखते हैं कि कौन कितनी प्रगति कर पाया है, किसके पास क्या है। और दूसरों से अपनी तुलना करने लगते हैं। जब हम अपने से कम स्तर के लोगों से अपनी तुलना करते हैं तो अहंकार पैदा होता है और अपने से अधिक संपन्न लोगों की ओर देखते हैं तो अभाव की भावना जन्म लेती है। दोनों ही परिस्थितियों में हम अपनी ओर नहीं देखते कि हमारे पास क्या है और अपने आपको अभावग्रस्त महसूस करने लगते हैं।

दूसरों से तुलना करते हुए खुद को कम आंकने से यह लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अभावों के कारण हमें कम प्यार या कम सम्मान मिल रहा है। इस तरह की सोच व्यक्ति को हीनताग्रस्त बना देती है और नकारात्मकता से भर देती है। अगर इस सोच को सकारात्मक दृष्टि से देखा जाए तो यह अहसास हो सकता है कि हमारे पास जो कुछ भी है, वह किसी से कम नहीं है।

हमने जो कुछ भी कमाया है, वह अपने प्रयास और परिश्रम से अर्जित किया है और उसकी तुलना दूसरों से करना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करके हम अपने आप को कमजोर और हीन सिद्ध करते हैं। दूसरों की प्रगति देखकर खुश होना चाहिए और आगे बढ़ने की प्रेरणा लेनी चाहिए, लेकिन हर समय अपना ध्यान दूसरों पर केंद्रित रखते हुए अनावश्यक परेशान रहना, अपनी कमियों को निहारना ठीक नहीं है। इस तरह की सोच रखने वाले लोग आमतौर पर अपनी ही ओर से निर्मित कई तरह की बाधाओं से जूझते रहते हैं। वे न प्रगति करते हैं और न ही अपना सही मूल्यांकन कर पाते हैं।

अगर हम अपने अभावों को सही अर्थों में दूर करना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें स्वयं का मूल्यांकन करना आना चाहिए। हमें अपनी योग्यता, क्षमता को स्वीकारना आना चाहिए, न कि उसे नकारना। इसी के माध्यम से हम कुछ कर पाते हैं। यह जरूर है कि योग्यता होने के बावजूद बहुत-सी चीजें ऐसी हैं, जो हमारी पहुंच से दूर होती हैं। हमारी जिंदगी शिकायतों से भरी है, लेकिन हम अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं, जो अभावों में जी रहे हैं।

कहीं ऐसा तो नहीं कि इन अभावों के आगे हम हार मान गए हैं या इन अभावों को कोसते रहने की हमारी आदत हो गई है, हम अपनी इन आदतों पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं और हम ही इनके नियंत्रण में आ गए हैं। कई बार लगातार मायूसी या दुख के हालात में घुलते रहने पर ऐसा हो जाता है कि व्यक्ति उन्हीं स्थितियों का अभ्यस्त हो जाता है।

दुख की आदत होने पर दुख से बचने या उससे दूर होने की इच्छा सो जाती है। ऐसा नहीं होना चाहिए। अपनी आदतों पर गौर करना, उसकी सकारात्मक और नकारात्मक बातों की पहचान करना उसमें सुधार लाने की दिशा में सबसे पहला पायदान है।