मैं काफी देर से उन्हें देख रहा था। वे बहुत चिंतित मुद्रा में लग रहे थे। कभी दार्इं ओर टहलने लगते, तो कभी बार्इं ओर। कभी दोनों हाथ सिर पर रख कर मन ही मन बुदबुदाते- ‘अब क्या होगा! ये तो बहुत गलत हो गया!’ वे मेरे परिचित थे। उनके इस अजीबोगरीब व्यवहार और कुछ बुदबुदाते हुए देख कर मुझे लगा कि उन्हें शायद कोई परेशानी है। मुझसे रहा नहीं गया तो आखिरकार पूछा- ‘भाई साहब, क्या आपको कोई तकलीफ है? क्या कहीं कुछ खो गया है आपका?’ उन्होंने एकदम चौंक कर मेरी तरफ देखा और बोले- ‘हां, एक बड़ी समस्या आ गई है। मेरे मोबाइल की बैट्री सुबह खराब हो गई। मोबाइल बंद है। सारे लोगों के संपर्क नंबर उसी में हैं। मरम्मत करवाने गया तो सर्विस सेंटर वाला कह रहा है कि असली बैट्री आने में चार-पांच दिन लग जाएंगे। अब बिना मोबाइल के मेरी हालत ‘जल बिन मछली’ जैसी हो गई है इस वक्त!’
भाई साहब की चिंता सुनने के बाद मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- ‘आप इसे लेकर ज्यादा परेशान न हों। बैट्री आ ही जाएगी। तब तक आप मेरे दूसरे फोन का इस्तेमाल कर सकते हैं।’ इतना सुन कर भाई साहब के चेहरे पर हलकी खुशी तो आई, मगर यह अफसोस छोड़ नहीं रहा था कि उन्हें किसी का भी कोई मोबाइल नंबर याद नहीं था। मुझे धन्यवाद देते हुए बोले- ‘जिंदगी की बैट्री चाहे जितनी डाउन क्यों न हो जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता, पर मोबाइल फोन की नहीं होनी चाहिए। इतनी निर्भरता बन गई है कि लोग इससे थोड़ी देर भी बर्दाश्त नहीं कर पाते और कई बार परेशान हो जाते हैं, ठीक मेरी तरह। लेकिन फिलहाल कोई चारा भी नहीं है।’
यह सुनने में थोड़ा अतिरेक लग सकता है। लेकिन जैसा मैंने भी अपने आसपास देखा है, शायद कुछ हद तक भाई साहब का कटाक्ष स्वाभाविक ही था। ऐसे न जाने कितने लोग हैं, जो मोबाइल से ज्यादा चिंता इस बात की करते हैं कि कहीं मोबाइल की बैट्री न खत्म हो जाए। बल्कि हालत यह है कि मोबाइल खरीदते वक्त व्यक्ति का पहला सवाल यही होता है कि इसका बैट्री बैकअप कितना है यानी एक बार चार्ज होने के बाद बैट्री लंबी चलेगी या बीच में ही हांफ जाएगी! सच है कि बिना बैट्री न मोबाइल की कोई उपयोगिता है, न उपभोक्ता की। जिंदगी की तमाम जद्दोजहद के बीच मोबाइल की बैट्री को हर समय ‘जीवित’ यानी चार्ज रखना किसी महत्त्वपूर्ण टास्क से कम नहीं होता। बल्कि कुछ लोग तो बैट्री को लेकर इतने फिक्रमंद रहते हैं कि सोते वक्त भी मोबाइल को चार्जिंग पर लगाना नहीं भूलते।
यही नहीं, मोबाइल के स्मार्टफोन में तब्दील हो जाने के बाद से तो लोगों की नींद भी कम हो गई है। कई खबरें आ चुकी हैं कि स्मार्ट फोन रखने वाले लोग दिन भर में बीस से पचास बार भी अपना मोबाइल चेक करते हैं, भले उसमें कोई मैसेज आया हो नहीं या कोई कॉल करना हो या नहीं। दूसरी ओर, सामाजिक रिश्ते भी कई बार मोबाइल सरीखे होते देखे जा रहे हैं। लोगों के पास वक्त की कमी है। चंद मिनट बात हो गई तो समझिए जग और मन दोनों जीत लिया। हां, इसके लिए फोन की बैट्री को जिंदा रखना बेहद जरूरी है, क्योंकि अब मोबाइल के लिए यही हमारी-आपकी ‘लाइफ-लाइन’ है यानी अब सामान्य जिंदगी में घुल चुकी है।
दरअसल, बदलते वक्त के साथ हमारी चिंताओं के पैमाने भी काफी बदल गए हैं। पहले हम बड़ी-बड़ी समस्याओं के बारे में सोच कर चिंतित होते थे। लेकिन अब हर छोटी से छोटी दिक्कत पर भी इस कदर परेशान हो जाते हैं, मानो कोई बहुत बड़ा पहाड़ हम पर टूट कर आ गिरा हो। उन भाई साहब का अपने फोन की बैट्री के लिए इतना फिक्रमंद होना एक उदाहरण भर है। लेकिन बैट्री के अलावा मैंने लोगों को मोबाइल चार्जिंग पिन के लिए भी बेहद चिंतित और उद्वेलित होते देखा-सुना है। अब आजकल लोग स्मार्टफोन के आकार को लेकर भी परेशान रहने लगे हैं। मुझे लगता है कि यह आधुनिक जीवनशैली और उसकी जरूरतों के अतिरेक में फंसने का नतीजा है।
अब लोग भूल रहे हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बहुत सारे लोग बस इतना ध्यान में रख रहे हैं कि आज का मनुष्य कई मामलों में चूंकि आधुनिक तकनीकी पर निर्भर होता गया है, इसलिए इसकी चिंता प्राथमिक है। इन चिंताओं के सिरे मोबाइल फोन की बैट्री से लेकर किस्म-किस्म की ऐप्स को डाउनलोड करने और उसी में व्यस्त चेहरे हर जगह दिख जाएंगे। सेल्फी खींचते हुए या मोबाइल में गुम रहने की वजह से हादसे में मौत के किस्से जाने कहां तक बिखरे पड़े हैं। क्या इस तरह निर्भरता ने हमें परोक्ष रूप से अपनी जंजीरों में जकड़ लिया है! (अंशुमाली रस्तोगी)