प्रभात कुमार
कई साल पहले जब हमारे कार्यालय की शाखा में नए प्रबंधक आए, तो उन्होंने कर्मचारियों की बैठक में सुझाव रखा कि क्यों न हम अपनी शाखा में एक जैसी पोशाक पहन कर आया करें। एक सुझाव यह आया कि पहले, सप्ताह में एक दिन से शुरू किया जाए। यह दिन सोमवार रखा गया। सभी स्टाफ सदस्य आसमानी नीले रंग की कमीज और रायल ब्लू रंग की पैंट पहन कर आने लगे। पूरे शहर में इस बदलाव की चर्चा होने लगी, तो सभी को अच्छा लगने लगा। इसका यह असर हुआ कि स्टाफ सदस्यों के उत्साह में वृद्धि होने लगी।
देश के कई संस्थानों में विशेष पोशाक पहनी जाती है, जो उनकी पहचान स्थापित करती है। स्वास्थ्य क्षेत्र में नर्सों की एक जैसी वर्दी देख कर बहुत सहज और सौम्य लगता है। कई विदेशी विमान परिचारिकाओं की पोशाक से पता चल जाता है कि वे किस देश की हैं। अनेक क्षेत्रों में बड़े से बड़े पद पर नौकरी या व्यवसाय करने के बावजूद अनेक लोग अपनी मूल पहचान बनाए रखने के लिए पारंपरिक पोशाक पहनते हैं। अपनी पारंपरिक पोशाक निरंतर अपनाए रखने से उनकी बौद्धिकता में कोई कमी नहीं आई है और जिन लोगों ने सिर्फ बदलाव या आधुनिकता के नाम पर पहनावे में औपचारिकता या बदलाव का दिखावा ओढ़ा है, वे ज्यादा बुद्धिमान नहीं हो गए हैं। राजनेता इस संबंध में बहुत व्यावहारिक होते हैं। पोशाक के मामले में अनुशासित रहते हैं।
तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि हमने औपचारिकता को घास की तरह हर कहीं बहुत ज्यादा उगा दिया है, तभी लगता है कि हमारी जीवन संस्कृति क्या से क्या हो गई है। त्योहारों के अवसर पर पारंपरिक पोशाक में तड़क-भड़क ज्यादा उगा दी गई है। विदेशी डिजाइन खूब फल-फूल रहे हैं। अनेक डिजाइनरों ने साड़ी के नाम पर कितनी ही तरह की ‘साड़ी’ बनाई, लेकिन क्या वे वस्त्र असली साड़ी का विकल्प बन सके। शुक्र है, यह सब उच्च मध्यवर्ग तक सीमित है। हमें शुक्रगुजार होना चाहिए, देश के कुछ कारीगरों और संस्कृति से प्यार करने वालों का, जिनके कारण साड़ी की विविधता अभी जीवित है। साड़ी ओलंपिक खेलों के उद्घाटन समारोह से बाहर हो चुकी है। वहां कोट-पैंट पधार चुके हैं। संदेह है कि साड़ी के हक में शाायद ही किसी महिला खिलाड़ी ने आवाज उठाई होगी।
इस बीच रोजमर्रा के दफ्तरी कामकाज में पोशाक में बदलाव लाने के लिए पुन: प्रयास होते रहते हैं। देश की मुख्य अन्वेषण संस्था के मुखिया ने कुछ समय पहले कहा था कि अब उनके विभाग में सामान्य पोशाक पहनी जाएगी, टी-शर्ट और जींस नहीं। कई संस्थान अपने अधिकारियों से कहते रहे हैं कि पुरुष कर्मी पतलून, कालर वाली कमीज और फार्मल जूते पहनें, महिला कर्मियों से कहा कि सूट, साड़ी, फार्मल शर्ट तथा पतलून पहन कर आएं, न कि जींस, टी-शर्ट, स्पोर्ट्स शूज या चप्पल। ये वैचारिक बदलाव कुछ कहते हैं। ये प्रयास बताते हैं कि पहनावा संस्कृति में विकसित हो चुके मनमाने, अवांछित बदलावों को बदलने के बारे में सोचा जाने लगा है। इधर फैशन और नवोन्मेषी होने के नाम पर हर कुछ प्रयोग कर रहे हैं। ‘फ्यूजन’ के नाम पर मूल चीजें ‘फ्यूज’ कर दी गई हैं। कहा यह जा रहा है कि यह संस्कृतियों का मिलन है, जो वास्तव में बाजारों में बिक रहे ‘ग्लैमर’ का मिलन है।
हमने जिंदगी का हर अनुशासन बिगाड़ा है। लिबास के मामले में लापरवाही फैलती जा रही है। कहा तो जाता है कि जिन वस्त्रों में आरामदेह महसूस करें वही पहनने चाहिए, लेकिन वस्त्र ऐसे भी तो होने चाहिए, जो किसी दुविधा का कारण न बनें। व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन के पहनावे में कुछ अंतर होना ही चाहिए। अवसर के अनुसार वस्त्र हमेशा बनाए जाते रहे हैं, लेकिन दिन-रात हो रहे विकास, जीवन में बढ़ रहे बाजार, खुलापन और दिखावे ने साहस, निडरता और आत्मविश्वास को व्यक्तित्व में कम, वस्त्रों में ज्यादा बढ़ावा दिया है। इसका परिणाम यह निकल रहा है कि पूजाघर तक में मनचाहे वस्त्र पहन कर जाया जाता है। जींस को सब जगह पहनने का वस्त्र बना दिया है।
किसी भी दूसरी संस्कृति की चीजें अपनाना बुरा नहीं, लेकिन अपनी संस्कृति को बिसराना प्रशंसनीय नहीं है। बदलाव के मौसम में स्वाभाविक रूप से पोशाक संस्कृति ने भी रंग-रूप बदलना ही था। दरअसल, यह बदलाव कथित विकास के कारण बदल रही भौतिक सोच के कारण रहन-सहन, खानपान, व्यवहार की वजह से आया है। शिष्टता, सभ्यपन, नैतिकता जैसे जीवन मूल्य भी अब हमारे बाहरी परिधान हो गए हैं। कबीर, रहीम, बापू हमारे जीवन की पोशाक में एक आवरण की तरह ही प्रयोग किए जा रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है, सब चलता है की प्रवृति धीरे-धीरे कब्जा कर रही है।