जिसे देखो वही भाग रहा है। केवल अपनी दुनिया, अपने होने की चिंता आदमी को खाए जा रही है। इस क्रम में आदमी का व्यवहार बहुत रूखा हो जाता है। सब उसे बेमानी संसार के फालतू प्राणी लगने लगते हैं। ऐसे में उसके भीतर जहां अकेले पड़ते जाने की त्रासदी बढ़ती जाती है, वहीं वह आक्रामक होता जाता है और कई बार हिंसक भी हो जाता है। बात-बात पर लड़ने-झगड़ने लगता है। वह किसी की नहीं सुनता और एक समय ऐसा भी आता है, जब वह खुद की भी नहीं सुनता।

मौजूदा दौर में इस तरह के भटकते हुए लोगों की भरमार देखी जा सकती है। ये लोग ऊब, खिन्नता, उदासी, चिंता से इस कदर घिरे होते हैं कि और कुछ इन्हें दिखता ही नहीं। अपनी जगह ये दूसरे को रखकर नहीं सोचते। लेकिन दूसरे क्या कर रहे हैं, यह देखते-सोचते रहते हैं। इस तरह के संदर्भ में उलझे लोग हमेशा संसार को देखते रहते हैं। सुकून से भरी दुनिया की चिंता में न जाने कहां-कहां भटकते रहते हैं।

खुद की जगह सब दूसरे के ठीक होने की चिंता कर रहे होते हैं। कोई खुद को ठीक नहीं करना चाहता। ऐसे में दूसरा व्यक्ति ठीक हो जाए, अच्छा व्यवहार करे, सब ठीकठाक हो, यह सब कैसे संभव होगा? इस तरीके से कोई कुछ नहीं कर सकता। ऐसे लोगों को पहले खुद ठीक होना पड़ेगा। सबसे पहले खुद को सही करना सीखना होगा, फिर दुनिया खुद ही ठीक हो जाएगी।

जो लोग दुनिया ठीक करने चलते हैं, उन्हें दुनिया देख रही है अपने ढंग से कि कुछ ठीक तो हुआ नहीं। इसलिए एक बात जो आसानी से समझ में आती है कि किसी को ठीक करने से पहले खुद को ठीक करने के लिए चल दें तो सब कुछ ठीक हो सकता है। सब बस एक ही तरीके से देखने की कोशिश करते हैं कि जो वे सोच रहे हैं या जो वे जानते हैं, बस वही ठीक है। इस तरह अपने आप को ठीक मानने का एक चलन चल पड़ा है। जबकि हमें जो ठीक लगता है, वह जरूरी नहीं कि सबके लिए ठीक हो। यहीं दुनिया को देखने की एक कोशिश हो जाती है। यों भी व्यक्तित्व में लोकतांत्रिकता एक आदर्श अपेक्षा है।

एक समस्या यह खड़ी हो रही है कि जब कभी यह लगता है कि हम ठीक नहीं हैं या जो और जैसा करना चाहते हैं, वह कर नहीं पा रहे हैं तो अचानक से हमारा धैर्य जवाब दे जाता है। जबकि ऐसे समय में हमारी सहनशीलता हमारे काम आती है। अगर हम सहनशील हैं तो बहुत कुछ स्थितियों को अपने अनुकूल भी कर लेते हैं। सहनशीलता मनुष्यता की दिशा में चला गया एक तरह से सबसे बड़ा कदम भी है, जो हर मुश्किल को दूर करता जाता है। मगर अब सहनशीलता इतनी कम होती जा रही है कि कोई भी अन्य तरीके से सोचता ही नहीं। उसे लगता है कि जो मेरा मकसद है, वह पूरा नहीं हुआ तो मैं क्या करूंगा। जबकि होना चाहिए कि मकसद को भी समय-समय पर अद्यतन और बदलते रहना चाहिए। जीवन में इतना लचीलापन होना चाहिए कि आज कुछ और कुछ बेहतर निर्णय ले सकें।

सोचने-समझने में स्थिरता की कमी आने का असर चुपचाप किस-किस कोने में पसर रहा है, यह हमें पता भी नहीं चल पाता! घर के सदस्य घर में रहते हुए गुम होते जा रहे हैं। इसी बदलते वक्त में बच्चों का बर्ताव भी बहुत तेजी से बदला है। बच्चे अगर अकेले में बैठे हैं, अकेले अपने मोबाइल में कैद या बंद हैं तो यह खतरनाक हो जाता है। फिर वे वही करने लगते हैं जो मोबाइल कहता है या जो मोबाइल के गेम उनसे कराना चाहता है।

यह उनके व्यवहार को एक सीमा के बाद आक्रामक बना देता है। आजकल छोटी-छोटी बातें, जिनका कोई खास अर्थ नहीं होता, वे आज के बच्चों के लिए प्रतिष्ठा और अस्तित्व का प्रश्न बनकर सामने आ जाती हैं। उसमें मोबाइल के साथ उसका अकेले होना और भी खतरनाक हो जाता है। जो किसी से घुलते-मिलते नहीं, इसका मतलब वे पढ़ने और सोचने में ही व्यस्त नहीं हैं, बल्कि अपने होने और न होने के बारे में भी सोच रहे होंगे। दूसरी तरफ बहुत वाचाल बच्चे हिंसक व्यवहार के शिकार होते जा रहे हैं।

अब इस तेजी से बदल रहे दौर में नकारात्मक जीवन-स्थितियों का शिकार होते जा रहे बच्चों को देखने और समझने का तरीका बदलना होगा। इनके दैनिक व्यवहार को बहुत सतर्कता से देखने-परखने की जरूरत है। किसी भी रूप में दबाव महसूस नहीं करना चाहिए। यह वातावरण, घर-परिवार, समाज और परिवेश में होना चाहिए। जो नहीं पढ़ रहा है, वह किसी और क्षेत्र में नाम करेगा। यह विचार माता- पिता और परिवार को बनाना होगा। अभाव के बीच भी अगर बच्चे पढ़ और पढ़ा रहे हैं तो उनमें गर्व का भाव विकसित कर उन्हें उच्च दिशा में रचनात्मक ढंग से ढालना जरूरी है।